भाषाविज्ञान के प्रकार (Types of Linguistics)
भाषाओं के अध्ययन की विषयवस्तु और पद्धति की
दृष्टि से भाषाविज्ञान के तीन प्रकार किए जाते हैं-
§ वर्णनात्मक
भाषाविज्ञान
§ ऐतिहासिक
भाषाविज्ञान
§ तुलनात्मक भाषाविज्ञान
इन्हें हम भाषावैज्ञानिक अध्ययन के तीन प्रकार
भी कह सकते हैं। जैसा कि इनके नाम से भी
स्पष्ट है- वर्णनात्मक भाषाविज्ञान किसी एक ही काल बिंदु पर किसी भाषा के स्वरूप
का अध्ययन विश्लेषण करता है; ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के
अंतर्गत एक या एक से अधिक भाषाओं का के ऐतिहासिक विकास का अध्ययन किया जाता है; और तुलनात्मक भाषाविज्ञान का उद्देश्य एक से अधिक भाषाओं की तुलना करते
हुए उनके बीच प्राप्त समानताओं और असमानताओं को उद्घाटित करना है। भाषाविज्ञान के
उपर्युक्त तीनों प्रकारों को निम्न प्रकार से देख सकते हैं-
§ वर्णनात्मक भाषाविज्ञान (Descriptive Linguistics)
वर्णनात्मक
भाषाविज्ञान में एक समय विशेष में प्रयुक्त होने वाले भाषिक रूपों का
अध्ययन-विश्लेषण किया जाता है। यह अध्ययन दो प्रकार से किया जाता है- संरचनात्मक
और प्रकार्यात्मक। इन दोनों प्रकारों के आधार पर वर्णनात्मक भाषाविज्ञान में
अध्ययन की 02 दिशाएँ बनती हैं-
§ संरचनात्मक
भाषाविज्ञान
§ प्रकार्यात्मक
भाषाविज्ञान
वर्णनात्मक भाषाविज्ञान में भाषा के सभी स्तरों
पर अध्ययन-विश्लेषण का काम किया जाता है, जिन्हें हम स्वनिम, रूपिम, शब्द /पद, पदबंध, उपवाक्य, वाक्य और प्रोक्ति के रूप में जानते हैं।
साथ ही ‘स्वन’ और ‘अर्थ’ संबंधी अध्ययन भी वर्णनात्मक भाषाविज्ञान के
अंतर्गत ही किया जाता है। इस संदर्भ में
मुख्य बात यह है कि यह अध्ययन केवल एक ही काल खंड या कालबिंदु पर आधारित होता है।
§ ऐतिहासिक भाषाविज्ञान (Historical
Linguistics)
ऐतिहासिक
भाषाविज्ञान में भाषा में होने वाले परिवर्तनों अध्ययन-विश्लेषण किया जाता है। भाषाविज्ञान
के इतिहास की दृष्टि से देखा जाए तो 18वीं शताब्दी के अंत में सर
विलियम जोंस के विचारों के प्रभाव से
ऐतिहासिक भाषाविज्ञान का ही सर्वप्रथम विकास हुआ, जिसे
अंग्रेजी में ‘फिलोलॉजी’ (Philology) कहते हैं। इसका उद्देश्य विश्व की भाषाओं में हुए परिवर्तनों की खोज करना
तथा भाषा-परिवारों के स्थापना करना रहा है।
किसी एक
भाषा या एक से अधिक भाषाओं में हुए भाषा परिवर्तनों की खोज उसके विभिन्न स्तरों पर
की जा सकती है, जिन्हें इस प्रकार से
नाम दिया जाता है-
§ ध्वनि परिवर्तन
§ रूप परिवर्तन
§ वाक्य परिवर्तन
§ अर्थ परिवर्तन
इनमें होने वाले
परिवर्तनों की खोज भिन्न-भिन्न प्रकार से की जाती है तथा नियम दिए जाते हैं। इसके
अलावा एक से अधिक भाषाओं की तुलना करते हुए उनके पुराने रूपों की खोज करना तथा
भाषा परिवारों का निर्माण करना भी ऐतिहासिक भाषाविज्ञान का एक महत्वपूर्ण कार्य
रहा है। इस दृष्टि से देखा जाए तो दुनिया की भाषाओं का वर्गीकरण दो प्रकार से किया
जाता है-
§ आकृति मूलक
वर्गीकरण
इसमें वर्गीकरण का आधार भाषाओं के रूपरचना को
बनाया जाता है।
§ पारिवारिक
वर्गीकरण
इसमें भाषाओं
की उत्पत्ति और समानताओं के आधार पर भिन्न-भिन्न भाषा-परिवारों का निर्माण किया
जाता है, जैसे- भारोपीय भाषा परिवार, आर्य भाषा
परिवार, चीनी तिब्बती भाषा परिवार आदि ।
भाषा परिवारों की स्थापना में ऐतिहासिक भाषाविज्ञान
के साथ-साथ तुलनात्मक भाषाविज्ञान भी काम करता है ।
§ तुलनात्मक भाषाविज्ञान (Comparative
Linguistics)
तुलनात्मक भाषाविज्ञान
में एक से अधिक भाषाओं की तुलना की जाती है तथा उनमें मिलने वाली समानताओं और
असमानताओं की खोज की जाती है। प्रारंभ में यह ऐतिहासिक भाषाविज्ञान का एक घटक रहा
है, जिसका उद्देश्य भाषाओं की तुलना के माध्यम से उनमें पाई जाने
वाली समानताओं के आधार पर भाषाओं का वर्गीकरण किया जा सके तथा भाषा परिवारों के
स्थापना की जा सके।
वर्तमान में तुलनात्मक भाषाविज्ञान अपने उस
सीमित अर्थ से ऊपर उठकर एक से अधिक भाषाओं
की तुलना तथा उनमें पाई जाने वाली समानताओं और असमानताओं की खोज से संबंधित
हो गया है। इस क्रम में एक नया नाम व्यतिरेकी भाषाविज्ञान (Contrastive
Linguistics) भी जुड़ गया है, जिसका उद्देश्य
भाषा-शिक्षण और अनुवाद की दृष्टि से दो भिन्न-भिन्न भाषाओं
में पाई जाने वाली समानताओं और समानता ओं की खोज करना है।
भाषाविज्ञान
में समकालिक (synchronic) और कालक्रमिक (diachronic)
अध्ययन
भाषाविज्ञान के
उपर्युक्त प्रकारों को ‘समकालिक और कालक्रमिक अध्ययन’ के रूप में
भी जाना जाता है। इस दृष्टि से हम कहते हैं कि भाषा का भाषवैज्ञानिक अध्ययन
मुख्यत: तीन विधियों से किया जाता है – समकालिक, कालक्रमिक
और तुलनात्मक (synchronic, diachronic and comparative)। भाषा
अध्ययन के इतिहास को देखें तो मुख्यत: कालक्रमिक पद्धति आरंभ से चली आ रही थी। इसे
ही मूल भाषाविज्ञान के रूप में देखा जाता था। कालक्रमिक और समकालिक अध्ययन में कोई
स्पष्ट विभाजन नहीं था। बीसवीं सदी के आरंभ में सस्यूर द्वारा किए गए चिंतन में
इनका स्पष्ट विभाजन दिखाई देता है। कालक्रमिक भाषा अध्ययन में विभिन्न काल बिंदुओं
पर किसी भाषा के विकास को देखा जाता है। समकालिक भाषा अध्ययन में एक ही काल बिंदु
पर किसी भाषा की स्थिति की विवेचना की जाती है।
वैसे देखा जाए
तो ‘समकालिक अध्ययन’ (वर्णनात्मक
भाषाविज्ञान) कालक्रमिक और तुलनात्मक दोनों ही अध्ययन प्रणालियों का मूल है। इसका
प्रयोग करते हुए ये दोनों प्रकार के अध्ययन अत्यंत सरलतापूर्वक किए जा सकते हैं।
इस कारण सस्यूर द्वारा समकालिक अध्ययन पर विशेष बल दिया गया है। उन्होंने कहा है –
"Synchronic
linguistics will concern the logical and psychological relations that bind
together co-existing terms and from a system in the collective mind of
speakers. Diachronic linguistics, on the contrary, will study relations that
bind together successive terms, not perceived by the collective mind but
substituted for each other without forming a system."
इस प्रकार देख
सकते हैं कि सस्यूर द्वारा समकालिक अध्ययन को भाषाभाषी के मन:मस्तिष्क के अधिक
समीप माना गया है।
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