भारत का भाषाई परिदृश्य– भारत में
भाषाओं की वास्तविक स्थिति क्या है? अल्पज्ञात
भाषाओं की संख्या कितनी है? इन भाषाओं के बोलने वाले किन
परिस्थितियों में अपनी मातृभाषाओं से विमुख हो रहे हैं? छोटे भाषा समुदाय क्या भाषा अंतरण कर रहे हैं या उनकी
आबादी ही धीरे-धीरे कम हो रही है? वर्तमान दौर बहुभाषिकता का है
इस संदर्भ में अगर छोटे भाषा समुदाय मुख्य धारा में जुड़ने के लिए अन्य भाषाओं को
भी अपना रहे हैं तो इसमें बुरा क्या है? क्या एक भाषा
का संकटापन्न होना दूसरी भाषा के प्रभावशाली होने का परिणाम है? कौन सी भाषाएँ सुरक्षित हैं? हिंदी से कृषि संबंधी शब्दावली का धीरे-धीरे लोप हो
रहा है, इसको किस रूप में देखा जाय?
अल्पज्ञात भाषाओं का प्रलेखन– भाषाओं के
प्रलेखन की आवश्यकता क्यों है? प्रलेखन में क्या-क्या प्रलेखित
किया जाय? क्या सिर्फ भाषा को प्रलेखित
किया जाय या साथ ही उस भाषा में निहित ज्ञान (सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, न्यायिक, औषधीय
इत्यादि) का भी समुचित प्रलेखन किया जाय? इन भाषाओं के
प्रलेखन में भाषा-समूह की कितनी भागीदारी होगी? क्या उनकी
भूमिका सिर्फ सूचना-प्रदाता तक ही सीमित रहेगी या उससे आगे बढ़कर प्रकाशन में भी
उनकी भागीदारी सुनिश्चित की जाएगी? भाषा प्रलेखन
का मुख्य उद्देश्य भाषाओं को सिर्फ प्रकाशनों में सुरक्षित कर देना होगा या उन
भाषाओं के संवर्धन एवं विकास से भी जुड़ा होगा?
प्रलेखन का माध्यम– अल्पज्ञात भाषाओं की अपनी लिपि नहीं है और उनको अन्य
लोगों तक पहुँचाने के लिए अन्य भाषाओं के माध्यम से ही प्रलेखन हो सकता है। यक्ष
प्रश्न है कि अल्पज्ञात भाषाओं का प्रलेखन किस भाषा के माध्यम से किया जाय और इस
प्रश्न पर विचार करना इस संगोष्ठी के मूल में है। प्रलेखित सामग्री का उपयोक्ता
निर्धारित किए बिना अधिकांशतः प्रलेखन का कार्य अंग्रेजी भाषा के माध्यम से किया
जा रहा है। हिंदी माध्यम से प्रलेखन (अध्येता कोश एवं लोक साहित्य) का कार्य सिर्फ
केंद्रीय हिंदी संस्थान के द्वारा ही किया जा रहा है। कुछ व्यक्तिगत तौर पर भी लोग
प्रलेखन के लिए हिंदी को माध्यम बना रहे हैं। विचारणीय प्रश्न यह है कि अंग्रेजी
माध्यम से प्रलेखित सामग्री का अल्पज्ञात भाषा समूह अपनी भाषा संवंर्धन हेतु कितना
उपयोग कर पाएगा? तो क्यों ना अल्पज्ञात भाषाओं
का प्रलेखन इन समूहों को मुख्य धारा से जोड़ने के लिए हिंदी के माध्यम से किया जाय
या कुछ परिस्थितियों में अन्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से?
अल्पज्ञात भाषाओं के प्रलेखन की समस्याएँ– प्रलेखन का
कार्य जितना आसान प्रतीत होता है वास्तव में उतना है नहीं। भाषाओं के अध्ययन, संरक्षण एवं प्रलेखन का प्रथम सोपान भाषा की
रिकार्डिंग एवं उसका लिप्यंकन है। डेटा-संग्रहण के लिए क्षेत्रकार्य (Field work) अनिवार्य है। हालाँकि विभिन्न परिस्थितियों में
क्षेत्रकार्य की रणनीति विभिन्न होती है, लेकिन
प्रत्येक तरह के क्षेत्रकार्य की अपनी समस्या होती है। इस शीर्षक में क्षेत्रकार्य
के लिए आवश्यक साधनों (प्रश्नावली) उपकरणों (रिकार्डर), सूचना-प्रदाता (Informant)
के चुनाव के
साथ साथ शोधकर्ता से अपेक्षित व्यवहार से संबंधित प्रश्नों पर विचार किया जाएगा।
लिप्यंकन के लिए अंतरराष्ट्रीय ध्वनि लिपि के स्थान पर देवनागरी प्रयोग करने में
क्या सुविधा होगी एवं कौन-सी समस्याएँ सिर उठाएँगी?
प्रलेखन की स्थिति– कुछ
अल्पज्ञात भाषाओं के प्रलेखन का कार्य पहले से ही हो रहा है अतः इस शीर्षक के
अंतर्गत कुछ भाषाओं पर भाषा-प्रलेखन से संबंधित शोध प्रपत्र पढ़े जाएँगे, जिनमें उन अल्पज्ञात भाषाओं के व्याकरण, कोश-निर्माण, सांस्कृतिक, सामाजिक, नृवैज्ञानिक
प्रलेखन से संबंधित शीर्षकों पर हिंदी भाषा में चर्चा होगी।
उक्त शीर्षक एवं प्रश्नों को संबोधित निम्न उपविषयों
पर शोध-पत्र आमंत्रित हैं-
§
भाषाविज्ञान एवं भाषा-प्रलेखन (language documentation)
§
अल्पज्ञात भाषाओं का प्रलेखन एवं क्षेत्रकार्य (field work)
§
भारतीय भाषाओं का प्रलेखन एवं देवनागरी
§
अल्पज्ञात भाषा एवं व्याकरण लेखन (Phonological, morphological and syntactic sketch)
§
सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक-शैक्षिक व्यवस्था एवं भाषाई
पुरुत्थान (language revitalization)
§
अल्पज्ञात भाषाएँ एवं भाषाई अभिवृत्ति (language attitude)
§
अल्पज्ञात भाषाओं में कोशकार्य
§
भारतीय भाषाएँ एवं लिपि
§
शिक्षा का माध्यम एवं हिंदी की क्षमता
§
देवनागरी की वैज्ञानिकता एवं रोमन का वर्चस्व
§
भारतीय नृजातीयता एवं समाज-सांस्कृतिक प्रलेखन (ethno-linguistic and socio-cultural documentation)
§
अल्पज्ञात भाषाएँ एवं उनका साहित्य
इस संगोष्ठी का उद्देश्य उक्त विषयों/प्रश्नों पर
विद्वानों एवं शोधकर्ताओं को अपने विचारों का आदान-प्रदान करने के लिए मंच उपस्थित
करवाना और हिंदी के माध्यम से प्रलेखन के कार्य को बढ़ावा देना है, जिससे इन अल्पज्ञात भाषाओं से संबंधित जानकारी आमजन तक
पहुँच पाए। अत: आमंत्रित शोध-पत्रों एवं विचार-विमर्श का माध्यम हिंदी होगी एवं
चुने हुए शोध-पत्रों को पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित करने की भी योजना है। पंजीयन
का कोई शुल्क नहीं होगा और प्रत्येक लेखक को लेखकीय प्रति संस्थान द्वारा उनके पते
पर भेजी जाएगी। इस हेतु आमंत्रित शोध-पत्रों को यूनिकोड (कोकिला फॉन्ट) में टंकित
एवं ससंदर्भ न्यूनतम 2500 शब्दों में
होना चाहिए। शोध-पत्र संगोष्ठी के ई-मेल पता: documentationseminar@gmail.com पर भेजा जा
सकता है।
संरक्षक
प्रो. नन्द किशोर पाण्डेय
निदेशक, केंद्रीय
हिंदी संस्थान एवं सचिव, केंद्रीय हिंदी शिक्षण मंडल
संरक्षक
प्रो. डी. जी. राव
निदेशक, भारतीय भाषा
संस्थान, मैसूरु
संयोजक
डॉ. परमान सिंह डॉ. नारायण चौधरी
क्षेत्रीय निदेशक, केंद्रीय
हिंदी संस्थान, मैसूरु केंद्र सहायक निदेशक व व्याख्याता, भारतीय भाषा संस्थान, मैसूरु
No comments:
Post a Comment