प्रकृति
संस्कृत व्याकरण परंपरा में शब्दमूलों
को प्रकृति कहा गया है। प्रकृति को परिभाषित करते हुए कहा जा सकता है-
मूल शब्दांश जिसमें किसी भी
प्रकार के उपसर्ग/प्रत्यय आदि का योग न हो,
जैसे- राम, फल, देव
आदि।
इनके दो भेद हैं-
(क) धातु
: क्रियाओं के मूल रूप धातु कहलाते हैं,
जैसे- जा, खा, चल
आदि। संस्कृत में धातुओं के साथ तिङ् प्रत्यय जोड़कर पदों का निर्माण किया जाता है, जिसे
सूत्ररूप में इस प्रकार प्रदर्शित कर सकते हैं-
धातु + तिंङ् प्रत्यय = ‘पद’ ।
(ख) प्रातिपदिक
: धातु के अलावा अन्य सभी नाम शब्द प्रातिपदिक कहलाते हैं। संस्कृत में प्रातिपादिकों के साथ सुप् प्रत्यय जोड़कर पदों का निर्माण किया जाता है, जिसे सूत्ररूप में इस प्रकार प्रदर्शित कर सकते
हैं-
प्रातिपदिक + सुप् प्रत्यय = ‘पद’।
प्रत्यय –
वे शब्दांश जो प्रकृति के
साथ जुड़कर पदों का निर्माण करते हैं, प्रत्यय कहलाते हैं। संस्कृत व्याकरण में इनके
दो प्रकार किए जाते हैं-
(क) तिंङ् प्रत्यय- वे प्रत्यय जो धातुओं के साथ जुड़कर
क्रियापदों का निर्माण करते हैं, जैसे-
गच्छ+ति= गच्छति (ति = तिंङ्
प्रत्यय)
(ख) सुप् प्रत्यय- वे प्रत्यय जो प्रातिपदिकों के साथ जुड़कर
नामपदों का निर्माण करते हैं, जैसे-
बालक + औ = बालकौ (औ = सुप्
प्रत्यय)
संस्कृत की तुलना में हिंदी वियोगात्मक
भाषा है। इसमें शब्द एवं पद निर्माण की अलग पद्धतियाँ हैं। शब्द-निर्माण एवं पद-निर्माण
की दृष्टि से हिंदी में प्राप्त होने वाले प्रत्ययों के दो वर्ग किए जाते हैं-
(क) व्युत्पादक प्रत्यय- वे प्रत्यय जिनके योग से नए शब्दों का निर्माण
किया जाता है, जैसे-
भारत + ईय = भारतीय
मानव + ता = मानवता
ज्ञान + ई = ज्ञानी
(ख) रूपसाधक प्रत्यय- वे प्रत्यय जिनके योग से शब्दरूपों का निर्माण
किया जाता है, जैसे-
लड़का + ए = लड़के
पेड़ + ओं = पेडों
खा + आ (या) = खाया
चल + आ = चला
गा + ता = गाता
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