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भविष्य में मशीनें इंसानों की तरह बातें कर सकेंगी?
क्या कोई केकड़ा उसी तरह दर्द महसूस कर सकता है, जिस तरह हम इंसान करते हैं?
हमें ये तो पता है कि केकड़े और इंसान में वही सेंसर होते हैं, जो हमें तकलीफ़ का एहसास कराते हैं. इन्हें नोसिसेप्टर्स कहते हैं. केकड़ों को जब उबलते पानी में डाला जाता है, तो वो अपनी पूंछ यूं मरोड़ते हैं, मानो दर्द से बिलबिला उठे हों.
पर, सवाल ये है कि क्या वो गर्म पानी को महसूस कर पाते हैं? या फिर ये उन के शरीर की महज़ एक प्रतिक्रिया होती है, गर्म पानी में डाले जाने पर?
हम जब कोई काम करते हैं, तो हमारे ज़हन में चेतना का बहुत पेचीदा तजुर्बा होता है. लेकिन, हम ये नहीं मान सकते कि जानवर भी ऐसा ही महसूस करते हैं. भले ही उन के ज़हन हम से मिलते-जुलते क्यों न हों.
जैसे कि कोई कुत्ता. कुत्तों का दिमाग़ और शरीर इंसान के शरीर और ज़हन से काफ़ी मिलता है. वो भी हमारी तरह बाहरी दुनिया को देख-सुन सकते हैं. लेकिन उन में वही चेतना होती है, जो इंसान में होती है, ये कहना मुश्किल है.
जब भी वैज्ञानिक चेतना के बारे में सोचना शुरू करते हैं, तो तमाम पहेलियां उठ खड़ी होती हैं. मसलन, क्या इंसानों जैसे दिमाग़ वाले जानवरों में भी जागरूकता होती है? इंसानों के अंदर जागरूकता कब पैदा होती है? हमें जैसा महसूस होता है, वैसा क्यों होता है? और, क्या भविष्य में कंप्यूटर भी हमारे ज़हन जैसी अंदरूनी ज़िंदगी का अनुभव हासिल कर सकेंगे?
वैज्ञानिक जूलियो टोनोनी ने इन सवालों में से कई के जवाब तलाशने की कोशिश की है. उन्होंने इस के लिए 'इंटीग्रेटेड इनफ़ॉरमेशन थ्योरी' ईजाद की है. जिस का मतलब है कि हमारे ज़हन के अलग-अलग हिस्से अलग-अलग तजुर्बे करते हैं. फिर वो अपनी अपनी जानकारी आपस में साझा करते हैं. इस से ही हमारे ज़हन में चेतना की बड़ी तस्वीर बनती है.
चेतना आख़िर है क्या? जूलियो टोनोनी का ये सिद्धांत इस सवाल के जवाब के साथ शुरू होता है.
टोनोनी कहते हैं कि कोई भी तजुर्बा हमें चेतना का एहसास कराता है, तो उस के कई पहलू होते हैं. वो कुछ ख़ास बिंदुओं पर भी ग़ौर करता है. और उन के बीच फ़र्क़ भी करता है. मसलन, आप किसी मेज़ पर कोई किताब रखी देखते हैं. उस किताब का रंग लाल है. और किताब के पास कॉफ़ी का एक कप भी रखा है. तो, हमारे दिमाग़ के अलग-अलग हिस्से इन अलग-अलग जानकारियों को प्रोसेस करते हैं. फिर ये सारी जानकारियां मिल कर एक बड़ी तस्वीर के तौर पर सामने आती हैं. जिस से हम जान पाते हैं कि सामने की मेज़ पर लाल रंग की एक किताब रखी है. और उस के बगल में कॉफी का एक कप भी रखा है.
ब्रिटिश लेखिका वर्जिनिया वूल्फ़ ने इसे 'अनगिनत परमाणुओं की लगातार बारिश' बताया था.
चेतना के इन सिद्धांत की मदद से जूलियो टोनोनी ये दावा करते हैं कि हम किसी इंसान, जानवर या कंप्यूटर की चेतना की गणना कर सकते हैं. और इस के लिए हमें ये समझना होगा कि उस के ज़हन के अलग-अलग हिस्सों में आने वाली जानकारी, आपस में किस तरह जुड़ती हैं.
वो कहते हैं कि हमारा दिमाग़ कंप्यूटर के सीपीयू यानी सेंट्रल प्रोसेसिंग यूनिट की तरह होता है. हम इसे डिजिटल कैमरे की मिसाल से और बेहतर ढंग से समझ सकते हैं. डिजिटल कैमरा रौशनी पड़ने पर हर पिक्सेल अलग पकड़ता है. फिर कैमरे के भीतर जा कर ये सारे पिक्सेल मिल कर एक मुकम्मल तस्वीर के तौर पर सामने आते हैं. यही काम हमारा दिमाग़ भी करता है. दिमाग़ के कुछ हिस्से रंग देखते हैं. तो कुछ आकार देखते हैं. कोई जगह को महसूस करता है, तो कोई वहां मौजूद चीज़ों में फ़र्क़ करता है. फिर वो सब मिल कर पूरी तस्वीर के तौर पर हमें दिखाई देते हैं.
यही बात हमारी याददाश्त पर भी लागू होती है. हमारी याददाश्त अलग अलग खानों में बंद अनुभव नहीं है. बल्कि तमाम अनुभवों का निचोड़ है. मसलन, जब हम जलेबी देखते हैं, तो उसे खाने का भी मन होता है. और कई बार हमें बचपन में खाई जलेबी का तजुर्बा भी याद आ जाता है.
जूलियो टोनोनी के इस दावे की पुष्टि के लिए तमाम सबूतों की ज़रूरत होती है. जो फ़िलहाल नहीं हैं.
अमरीका की कैलिफ़ोर्निया बर्कले यूनिवर्सिटी के डेनियल टोकर कहते हैं कि तमाम जानकारियों का एकीकरण ही हमारी चेतना है, ये सहज ज्ञान की बात है. लेकिन, इसे मज़बूती देने के लिए और सबूतों की ज़रूरत है. टोकर ये ज़रूर मानते हैं कि ये रिसर्च सही दिखा में जा रही है. वो कहते हैं कि जूलियो टोनोनी की थ्योरी भले आगे चल कर सही न निकले. मगर ये हमें इंसानों और दूसरे जीवों ही नहीं, मशीनों की चेतना को समझने में भी मदद करेगी.
अगर ये सिद्धांत हमें ये बता देता है कि किसी केकड़े को भी दर्द होता है, तो इस के दूरगामी नतीजे होंगे. जानवरों के अधिकारों के लिए लड़ने वालों के पास अपनी बात रखने के लिए और मज़बूत तर्क होंगे.
इस की मदद से आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से जुड़े कई सवालों के जवाब भी तलाशे जा सकते हैं. मसलन, क्या मशीनें आगे चल कर इंसानों की तरह सोच-समझ सकेंगी? बातें कर सकेंगी? हालांकि, टोनोनी का कहना है कि आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस वाली मशीनों की जो संरचना अभी हमारे सामने है, उस की बुनियाद पर वो ये कह सकते हैं कि मशीनें, इंसानों की तरह की अंदरूनी ज़िंदगी के अनुभव कभी नहीं कर सकेंगी.
उस की वजह टोनोनी ये बताते हैं कि मशीनों की गणना की क्षमता नहीं, बल्कि ऊपरी बनावट इस के लिए ज़िम्मेदार है. इसलिए हम कभी इस नैतिक दुविधा में नहीं पड़ेंगे कि मशीनें, इंसानों से ज़्यादा जागरूक और चैतन्य हो जाएंगी.
हां, आगे चल कर अगर टोनोनी का सिद्धांत सही साबित होता है, तो हम ये समझ सकेंगे कि हम आपस में कैसे बात करते हैं. अमरीका के मशहूर मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी में थॉमस मलोन ने इस सिद्धांत को कई लोगों पर एक साथ लागू किया. उन्होंने देखा कि अक्सर समूह में काम करने वाले लोगों में सामूहिक चेतना जागृत होती है. वो एक जैसे सोचने लगते हैं. एक सा महसूस करते हैं. एक तरह से फ़ैसले करते हैं और किन्हीं परिस्थितियों में एक जैसी प्रतिक्रियाएं भी देते हैं.
हालांकि, थॉमस मलोन सावधान करते हैं कि अभी ये प्रयोग शुरुआती दौर में है. इस पर और रिसर्च की ज़रूरत है.
फिलहाल, तो हम यक़ीन के साथ ये नहीं कह सकते कि केकड़े को गर्म पानी में डालने पर उसे भयंकर तकलीफ़ का एहसास होता है. हम ये भी नहीं कह सकते कि किसी समाज या कंप्यूटर में सामूहिक चेतना का एहसास होता है या नहीं. लेकिन, हो सकता है कि भविष्य में जूलियो टोनोनी के सिद्धांत से हमें इन सवालों के जवाब मिल सकें.
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