भाषा और बोली (Language and Dialect)
किसी
समाज में एक से अधिक भाषाओं के प्रचलित होने की स्थिति में उन भाषाओं की सामाजिक
या व्यावहारिक स्थिति का निर्धारण एक कठिन प्रश्न है, जिसके लिए समाजभाषावैज्ञानिकों की आवश्यकता
पड़ती है। यदि किसी समाज में एक से अधिक भिन्न भाषाएँ प्रचलित होती हैं तो उनके
प्रयोग के स्थितियों का निर्धारण ‘भाषा नियोजन’ (Language Planning) के अंतर्गत आता है, जो समाजभाषाविज्ञान का अनुप्रयुक्त पक्ष है। इसमें (1) एक से अधिक भाषाओं के
व्यवहार की स्थिति का निर्धारण, तथा (2) एक भाषा के एकाधिक
रूपों के प्रयोग की स्थिति का निर्धारण आदि से संबंधित बातें आती हैं।
उपर्युक्त
में से दूसरे पक्ष का संबंध ‘भाषा और बोली’ से है। यदि एक ही भाषा के एकाधिक
रूप प्रयोग में आते हैं या ऐतिहासिक रूप से विकसित समान प्रकार की एकाधिक
भाषाओं में किसी एक रूप को ‘भाषा’
और दूसरे रूप को उसके अंतर्गत (बोली) समाहित करने की स्थिति भी प्राप्त होती है।
ऐसे में उनके प्रकार्य का निर्धारण ‘भाषा और बोली’ से संबंधित विषय है।
एक
भाषावैज्ञानिक के लिए भिन्न स्वरूप रखने वाली एक से अधिक सभी भाषाएँ ‘भाषा’ ही होती हैं।
सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और ऐतिहासिक
कारणों से उनके व्यवहार की स्थिति में किया जाने वाला परिवर्तन उन्हें भाषा और
बोली बना देता है। इस दृष्टि से भाषा और बोली को इस प्रकार से परिभाषित किया जा
सकता है-
भाषा
(Language)
‘भाषा’ किसी बोली का वह मानक रूप है, जिसका किसी समाज में औपचारिक और अनौपचारिक दोनों प्रकार के
क्षेत्रों में व्यवहार होता है।
बोली (Dialect)
जब
कोई बोली अपने से किसी बड़ी भाषा के अंतर्गत केवल अनौपचारिक व्यवहार क्षेत्रों में
प्रयुक्त होती है और औपचारिक क्षेत्रों में उसी से संबंधित किसी बोली के मानक रूप का
प्रयोग होता है, तो उसे उस मानक रूप (भाषा)
की बोली कहते हैं।
सामान्य
व्यवहार की दृष्टि से सभी भाषाएँ ‘भाषा’ होती हैं या ‘बोली’ होती हैं, किंतु जब उनका कोई रूप औपचारिक व्यवहार
में भी शासन-प्रशासन द्वारा स्वीकृत हो जाता है, तो वह ‘भाषा’ बन जाता है और शेष सभी रूप बोली की स्थिति में
रहते हैं। हिंदी और इसकी सहभाषाओं, जैसे- भोजपुरी, अवधी, मगही, राजस्थानी आदि का
संबंध कुछ इसी प्रकार का है।
किसी
बोली के भाषा बनने के कारण या तत्व
यदि
किसी बोली में निम्नलिखित तीन तत्वों का समावेश होता है, तो वह भाषा कहलाती हैं-
§ शासन-प्रशासन या कार्यालयी व्यवहार में प्रयोग
§ व्यापार में प्रयोग
§ शिक्षा में प्रयोग
ऐसा
नहीं होने पर वह बोली के रूप में मानी जाती है। इन तीनों को ही सामूहिक रूप से
भाषा का औपचारिक व्यवहार क्षेत्र कहते हैं। भारत में भाषा और बोली के संबंध में
संविधान के अंतर्गत आठवीं अनुसूची की एक व्यवस्था बनाई गई है। राजनीतिक दृष्टि से
यह विधि उपयोगी हो सकती है। भाषावैज्ञानिक दृष्टि से उसका कोई संबंध नहीं है।
इसे
समझने के लिए ‘हिंदी’ ‘भोजपुरी’ और ‘मराठी’ का उदाहरण ले सकते हैं। इनमें ‘भोजपुरी’ और ‘मराठी’ दोनों ही भाषाएँ समान स्रोत से निकली हुई हैं और सामान महत्त्व रखती हैं।
किंतु ‘मराठी’ ‘महाराष्ट्र’ राज्य में उपयुक्त तीनों ही कार्यों के लिए प्रयुक्त होती है इसलिए यह एक
भाषा है। ‘भोजपुरी’ अपने व्यवहार
क्षेत्र उत्तर प्रदेश का पूर्वांचल और पश्चिमी बिहार में केवल अनौपचारिक
क्रियाकलापों में ही प्रयुक्त होती है। वहां पर उपर्युक्त तीनों काम ‘हिंदी’ के माध्यम से ही संपन्न किए जाते हैं। इसलिए
वहाँ पर भाषा का काम हिंदी करती है जबकि भोजपुरी बोली का काम करती है, जबकि हिंदी, भोजपुरी, मराठी
तीनों ही भाषावैज्ञानिक दृष्टि से समान स्तर की भाषाएँ हैं।
भाषा
और बोली के संबंध में भ्रांतियाँ
भाषा
और बोली के संबंध में भेद करने के लिए सामान्य लोगों द्वारा कुछ इस प्रकार की
अवधारणाएँ भी दी जाती हैं-
§ भाषा का मानक रूप होता है, बोली का नहीं।
§ भाषा के व्याकरण और शब्दकोश होते हैं, बोली के नहीं।
§ भाषा का लिखित रूप होता है, बोली का नहीं।
§ भाषा की लिपि होती है, बोली की नहीं।
§ भाषा का साहित्य होता है, बोली का नहीं।
ये
सब भाषा और बोली के संबंध में भ्रांतियाँ मात्र हैं। इनसे भाषा और बोली के बीच
अंतर नहीं किया जा सकता है।
भाषा
और बोली के संदर्भ में क्षेत्रीय रूप
भाषा
और बोली का एक संदर्भ किसी भाषा के क्षेत्रीय रूपों (regional forms) से लिया जाता है। यहाँ पर ‘बोली’ का अर्थ हम ‘उपभाषा’ या ‘क्षेत्रीय विभेद’ के रूप
में लेते हैं। उदाहरण के लिए ‘मराठी’
भाषा की चार बोलियाँ हैं- मानक मराठी,
कोल्हापुरी, वर्हाड़ी आदि। इनमें से मानक मराठी को ही मराठी
भाषा के रूप में मानते हैं, जो पुणे के आसपास बोला जाने वाला
रूप है। इसी प्रकार भोजपुरी के भी पाँच रूप प्राप्त होते हैं, जिन्हें भोजपुरी की पाँच बोलियाँ कह सकते हैं,
जैसे- भोजपुर और आसपास की भोजपुरी (मानक भोजपुरी), बनारसी, गोरखपुरिया सरवरिया आदि। इस प्रकार के रूपों को बोलियाँ कह सकते हैं। हिंदी
और इसकी सहभाषाएँ, जैसे- भोजपुरी, अवधी, मगही, राजस्थानी आदि
सभी भाषाएँ ही हैं। यह बात अलग है कि राजनीतिक दृष्टि से
इनकी हैसियत हिंदी की बोली के रूप में है। मैथिली भी पहले हिंदी की बोली थी, सरकार से मान्यता मिलते ही वह भाषा कहलाने लगी। इसी तरह भोजपुरी को भी
आठवीं अनुसूची में स्थान मिलते ही यह भाषा कहलाने लगेगी। अतः राजनीतिक या सरकार
संबंधी पक्ष है। भाषा और बोली से इसका संबंध नहीं है।
इसी
प्रकार हिंदी के भी हिंदी, हिंदुस्तानी, उर्दू तीन रूप मिलते हैं, जिन्हें इसकी बोलियाँ भी
कहा जा सकता है। तब यह वर्गीकरण क्षेत्र आधारित नहीं होगा,
बल्कि प्रयोग आधारित होगा।
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