समाजभाषाविज्ञान (Sociolinguistics) का स्वरूप
समाजभाषाविज्ञान वह विषय है जिसमें भाषा और समाज के परस्पर
संबंधों का अध्ययन किया जाता है और इसमें यह देखा जाता है कि भाषाएँ समाज को कैसे
प्रभावित करती हैं या समाज भाषाओं को कैसे प्रभावित करता है।
एक अध्येता को समाजभाषाविज्ञान के स्वरूप को समझने के लिए
निम्नलिखित दो चीजों का ज्ञान आवश्यक है-
·
भाषा
क्या है? = भाषा व्यवस्था और
व्यवहार का ज्ञान à (
= भाषाविज्ञान)
·
समाज
क्या है? = सामाजिक व्यवस्था
और विभेद आदि à (
= समाजशास्त्र)
अतः स्पष्ट है कि इसमें दो विषयों की पृष्ठभूमि आवश्यक है- भाषाविज्ञान
+ समाजशास्त्र। किंतु समाजभाषवैज्ञानिक मूलतः भाषावैज्ञानिक होता है। अर्थात
उसे भाषायी संरचना संबंधी पूर्ण ज्ञान होगा। समाजभाषाविज्ञान के अंतर्गत वह
उस संरचना को समाज के सापेक्ष देखने का कार्य करेगा। अतः समाजभाषाविज्ञान के
विवेच्य विषय को इस प्रकार से दर्शा सकते हैं-
भाषा (मूल) + समाज (सहायक/अतिरिक्त)
अतः इसमें दोनों विषयों का संयोग इस प्रकार होगा-
भाषाविज्ञान (मूल) + समाजशास्त्र (सहायक/अतिरिक्त) = समाजभाषाविज्ञान
इसके विपरीत भी एक स्थिति हो सकती है-
समाजशास्त्र (मूल) + भाषाविज्ञान (सहायक/अतिरिक्त) = भाषा का समाजशास्त्र
अतः उपरोक्त विषयों के विपरीत संयोग से निर्मित विषय, जिसमें समाजशास्त्र ‘मूल’ हो, तथा भाषाविज्ञान ‘सहायक/अतिरिक्त’ का कार्य करता हो, ‘भाषा का
समाजशास्त्र’ (Sociology of Language) कहलाएगा। यह
समाजभाषाविज्ञान की तरह ही एक अंतरानुशासनिक विषय है, जिसका
अध्येता मूलतः ‘समाजशास्त्री’ होगा, जबकि समाजभाषाविज्ञान (Sociolinguistics) का अध्येता मूलतः ‘भाषावैज्ञानिक’ होगा। अतः समाजभाषाविज्ञान का अध्ययन करने से पहले अध्येता को सैद्धांतिक
भाषाविज्ञान का समुचित ज्ञान अपेक्षित है। हम सैद्धांतिक भाषाविज्ञान से
परिचित हैं, फिर भी संदर्भ की पूर्णता के लिए इसे निम्नलिखित
चित्र में देख सकते हैं-
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