सामाजिक वस्तु (Social Object) के रूप में भाषा
इसमें
हम यह देखते हैं कि क्या भाषा एक सामाजिक वस्तु है? यदि नहीं तो वह और किस प्रकार की वस्तु हो सकती है? इस दृष्टि से विचार करने पर मुख्यतः तीन प्रकार
की वस्तुओं की संकल्पना सामने आती है -
(क)
प्राकृतिक वस्तु (मूर्त/अमूर्त) (Natural
Object) :- इसके अंतर्गत ब्रह्मांड की वह
वस्तु आती है, जिसका प्रकृति में एक
निश्चित अस्तित्व होता है। वह मूर्त या अमूर्त किसी भी प्रकार की हो सकती है। उसकी
सत्ता प्रकृति में होती है और उसका निरीक्षण या विश्लेषण किया जा सकता है। उदाहरण
के लिए कुछ को इस प्रकार से देख सकते हैं-
तत्व
(elements), जैसे- हाइड्रोजन, कार्बन, कैल्सियम आदि।
यौगिक/पदार्थ (matter), जैसे- पत्थर, जल, सोना, हवा, धुवाँ, ध्वनि आदि।
वस्तु
(object), जैसे- कुर्सी, घर, पेड़, जानवर, कंप्यूटर आदि।
चाहे
मनुष्य हो या न हो इनकी सत्ता सदैव रहती है। इस दृष्टि से भाषा पर विचार करें, तो भाषा इनमें से किसी भी प्रकार की वस्तु
नहीं है।
यदि
भाषा प्राकृतिक वस्तु नहीं है तो वह मानवीय (human) (=मनुष्य से संबंधित) वस्तु होनी चाहिए, जिसके दो
पक्ष हैं- व्यक्तिगत या सामाजिक। इन्हें अगले दो उपवर्गों में देख सकते हैं-
(ख)
व्यक्तिगत वस्तु (Personal object):-
इस दृष्टि से देखा जाए तो भाषा का व्यवहार एक-एक व्यक्ति द्वारा किया जाता है। हम
किसी भाषा के बारे में तभी जान पाते हैं, जब कोई व्यक्ति उसे अभिव्यक्त करता हो। उदाहरण के लिए हम ‘चीनी या जापानी’ को एक भाषा के रूप में तभी जान
पाएँगे, जब उसका भाषाभाषी बोलकर या लिखकर अपनी भाषा में कुछ
सामग्री अभिव्यक्त करे।
यदि
किसी भाषा का भाषी व्यक्ति न हो तो उस भाषा की सत्ताभी नहीं होगी। अतः जान पड़ता है
कि ‘भाषा’ एक व्यक्तिगत वस्तु है। किंतु ‘भाषा’ एक व्यक्तिगत वस्तु भी नहीं है, क्योंकि व्यक्तिगत
वस्तु को हम अपनी सुविधा या मर्जी से रख या तोड़-मरोड़ सकते हैं, जैसे- अपने कपड़े, जूते,
बिस्तर आदि को हम अपने हिसाब से लगाते या रखते हैं। उसकी जगह आदि हम बदल भी सकते
हैं, किंतु भाषा में हम व्यक्तिगत स्तर पर कोई भी परिवर्तन
नहीं कर सकते। भाषा में एक नए शब्द तक को चलाने के लिए समाज की स्वीकृति आवश्यक
होती है। इसी कारण हिंदी में ‘कंप्यूटर’ को ‘कंप्यूटर’ कहें या ‘संगणक’, आज तक निश्चित नहीं हो पाया है, क्योंकि पूरा हिंदी भाषी समाज एक बात पर सहमत नहीं है।
अतः
‘भाषा’ व्यक्तिगत वस्तु भी नहीं है।
(ग)
सामाजिक वस्तु (Social
Object) :- भाषा एक सामाजिक वस्तु है। किसी भाषा का जन्म और विकास
उसके भाषाभाषी समाज में ही होता है। मानव शिशु अपने सामाजिक परिवेश से ही भाषा को
सीखता है। यदि उसे समाज से दूर रखा जाए, तो वह अपने समाज की
भाषा नहीं सीख पाता। उसके पास ‘भाषा अर्जन युक्ति’ (LAD, Chomsky) या क्षमता तो होती है, किंतु वह क्षमता तभी काम करती है, जब बालक को समाज
से भाषा का इनपुट मिले।
किसी
भाषा का व्यवहार, प्रचलन, परिवर्तन, नए शब्दों या रूपों का प्रयोग आदि समाज
द्वारा स्वीकृत होने पर ही घटित होता है। अतः भाषा सामाजिक संपत्ति या वस्तु है।
व्यक्ति तो इसके व्यवहार का माध्यम मात्र है। भाषा में एक-दो नए शब्दों या रूपों
के प्रयोग को कुछ प्रतिष्ठित लोग प्रभावित कर सकते हैं,
किंतु उस नए शब्द या रूप को भाषा में वास्तविक स्थान तभी मिलता है, जब समाज की भी स्वीकृति प्राप्त हो जाए। उदाहरण के लिए महात्मा गांधी ने
दलित लोगों के लिए ‘हरिजन’ शब्द
का प्रयोग आरंभ किया, जो समाज द्वारा स्वीकृत होकर चल पड़ा; किंतु उनके प्रिय भजन में आया हुआ ‘वैष्णव जन’ सामान्य भाषायी व्यवहार में प्रचलित नहीं हो सका।
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