भाषाशिक्षण के संदर्भ में भाषाओं के प्रकार
भाषाओं को कई दृष्टियों से वर्गीकृत किया जा सकता है, जैसे-
(क) प्रयोग या व्यवहार की दृष्टि से-
औपचारिक भाषा, अनौपचारिक भाषा, कार्यालयी भाषा, संपर्क भाषा आदि।
(ख) संस्थागत मान्यता/स्वीकृति की दृष्टि से-
राजभाषा, राष्ट्रभाषा आदि।
(ग) विस्तार की दृष्टि से –
विश्वभाषा, भाषा, बोली, उपबोली, व्यक्ति बोली आदि।
(घ) सीखने-सिखाने की दृष्टि से भाषाओं के प्रकार
इसका संबंध भाषा शिक्षण से है। इस दृष्टि से निम्नलिखित वर्गीकरण किया जा सकता है-
इसे सीखने/सिखाने एवं समाज की स्थिति के आधार पर भाषा-भेद भी कह सकते हैं। उक्त चित्र में दिए गए नाम इस प्रकार हैं-
मातृभाषा
प्रथम भाषा
द्वितीय भाषा
तृतीय भाषा
विदेशी भाषा
इन्हें संक्षेप में इस प्रकार से समझ सकते हैं-
§ मातृभाषा :- जन्म के पश्चात मानव शिशु अपने परिवार या परिवेश से जिस भाषा को सीखता है, उसे उसकी मातृभाषा कहते हैं। मानव शिशु इस भाषा को ‘बोलना’ और ‘सुनना’ स्वयं सीखता है, जो भाषा अर्जन के अंतर्गत आता है।
§ मातृभाषा संबंधी बिंदु-
(1) यदि हिंदी भाषी शिशु जन्म के पश्चात फ्रांस चला जाता है और वहाँ रहकर पहली बार ‘फ्रेंच’ सीखता है, तो उसकी मातृभाषा फ्रेंच होगी।
(2) यदि हिंदी भाषी शिशु जन्म के पश्चात कुछ-कुछ हिंदी सीखकर फ्रांस चला जाता है और वहाँ रहकर ‘फ्रेंच’ सीखता है। बाद में वह हिंदी भी सीख लेता है और इस प्रकार दोनों भाषाओं पर समान अधिकार हो जाता है, तो उसकी मातृभाषा का निर्धारण इस बात से होगा कि वह किस भाषायी समाज से अपने-आप को जोड़कर सहज महसूस करता है।
(3) मातृभाषा के कुछ और चिह्नक हैं- सपनों की भाषा, गाली-गलौज की भाषा आदि।
§ प्रथम भाषा :- किसी भाषायी समाज में जिस भाषा में औपचारिक क्रियाकलाप होते हैं, वह उस समाज की प्रथम भाषा होती है। इनमें से मुख्यतः तीन प्रकार के कार्य प्रथम भाषा के निर्धारक तत्व होते हैं-
(क) शिक्षा
(ख) व्यापार
(ग) कार्यालयी कामकाज
§ प्रथम भाषा संबंधी बिंदु-
(1) कई बार मातृभाषा और प्रथम भाषा एक ही होती हैं, जैसे- दिल्ली में हिंदी, महाराष्ट्र में मराठी, अमेरिका में अंग्रेजी आदि। अर्थात वह जगह जहाँ परिवेश (परिवार) में वही भाषा बोली जाती हो तथा औपचारिक क्रियाकलाप भी उसी भाषा में हो।
(2) कई बार मातृभाषा और प्रथम भाषा भिन्न-भिन्न होती हैं, जैसे- राजस्थान में ‘राजस्थानी और हिंदी’, पूर्वी उत्तर-प्रदेश/पश्चिमी बिहार में ‘भोजपुरी और हिंदी’ आदि। अर्थात वह जगह जहाँ परिवेश (परिवार) में किसी एक ‘भाषा या बोली’ का व्यवहार होता हो तथा औपचारिक क्रियाकलाप में दूसरी भाषा का व्यवहार होता हो । उदाहरण-
पूर्वी उत्तर-प्रदेश/पश्चिमी बिहार - ‘भोजपुरी - हिंदी’
(मातृभाषा) (प्रथम भाषा)
परिवेश (परिवार) औपचारिक क्रियाकलाप
§ द्वितीय भाषा :- किसी भाषायी समाज में मातृभाषा और/या प्रथम भाषा के अलावा किसी अन्य भाषा के भी प्रचलित होने की स्थिति में वह अतिरिक्त भाषा ‘द्वितीय भाषा’ कहलाती है, जैसे-
पूर्वी उत्तर-प्रदेश/पश्चिमी बिहार –
भोजपुरी - हिंदी - अंग्रेजी
(मातृभाषा) (प्रथम भाषा) द्वितीय भाषा
परिवेश (परिवार) औपचारिक क्रियाकलाप अतिरिक्त व्यवहार
दिल्ली–
हिंदी - अंग्रेजी
(मातृभाषा/प्रथम भाषा) द्वितीय भाषा
परिवेश (परिवार)/ औपचारिक क्रियाकलाप अतिरिक्त व्यवहार
किसी भाषायी समाज में द्वितीय भाषा का व्यवहार होने के कई कारण हो सकते हैं, किंतु सामान्यतः यह ‘भाषा प्रभुत्व’ से उत्पन्न स्थिति होती है। अर्थात जिस भाषा का व्यवहार द्वितीय भाषा के रूप में होता है, वह भाषा ‘मातृभाषा/प्रथम भाषा’ की तुलना में प्रभुत्वशाली (dominant) मानी जाती है, जबकि वास्तव में ऐसी कोई बात नहीं होती। हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं के समाज में ‘अंग्रेजी’ की यही स्थिति है।
§ तृतीय भाषा :- किसी समाज में तीन भाषाओं के व्यवहार की स्थिति भी प्राप्त होती है, जैसे-
महाराष्ट्र –
मराठी- हिंदी - अंग्रेजी
मातृभाषा/प्रथम भाषा द्वितीय भाषा -तृतीय भाषा
बंगाल–
बंगाली- हिंदी - अंग्रेजी
मातृभाषा/प्रथम भाषा द्वितीय भाषा -तृतीय भाषा
सब जगह तृतीय भाषा होना आवश्यक नहीं है।
§ विदेशी भाषा :- वह भाषा जो किसी अन्य देश में प्रयोग में आती हो, किंतु अपने भाषायी में उसका व्यवहार न होता हो, जैसे- जापानी, फ्रेंच, चीनी आदि।
यदि कोई विदेशी भाषा किसी भी रूप में अपने समाज में भी प्रचलित हो गई हो, तो वह विदेशी नहीं रह जाती, जैसे- भारत में अंग्रेजी या उर्दू (अरबी/फ़ारसी)।
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