‘रूपक’ (metaphor) और ‘रूपकीकरण’ (metonymy)
संज्ञानात्मक अर्थविज्ञान में ‘रूपक’ (metaphor) और ‘रूपकीकरण’ (metonymy) के संबंध में भी पर्याप्त विचार किया
गया है। जब किसी एक वस्तु के अर्थ या भाव का विस्तार किसी दूसरी वस्तु तक इस
प्रकार से किया जाता है कि दोनों में भेद ना रह जाए, तो इस
विस्तार को रूपक कहते हैं। यहां ध्यान देने वाली बात है कि साहित्य में ‘रूपक’ एक अलंकार भी है। वहां पर रूपक अलंकार की
परिभाषा देते हुए जो बात कही जाती है, वह यहां प्रयुक्त रूपक
शब्द के अंतर्गत भी लागू होती है-
रूपक अलंकार को समझाने के लिए साहित्य का
सुप्रसिद्ध उदाहरण इस प्रकार है-
चरण कमल बंदौ हरिराई।
इसमें ‘चरण’ को ही ‘कमल’ मान लिया गया है, इसलिए
यहां पर रूपक अलंकार का प्रयोग है।
भाषा के स्तर पर भी हम देखते हैं कि भाषा विशाल
मात्रा में रूपक गढ़ती है। अर्थात एक वस्तु के भाव का विस्तार दूसरी वस्तु तक कर
देती है, यह विस्तार कई रूपों
में होता है। उदाहरण के लिए ‘जलना’ एक
क्रिया है, यह क्रिया मूलतः ‘आग द्वारा
जलना’ का अर्थ प्रदान करती है, किंतु
रूपकीकरण के माध्यम से निम्नलिखित रूपकों में इसका प्रयोग देखा जा सकता है-
रूपक स्तर -01
·
बल्ब जलाना
·
ट्यूबलाइट जलना
रूपक स्तर -02
·
दिल जलना
·
खून जलना
रूपक स्तर -03
·
जल भुन जाना
·
किसी को देख कर जलना
इसी प्रकार विभिन्न संज्ञा, विशेषण, क्रियाओं द्वारा प्रयुक्त शब्दों के अर्थ का विस्तार उसी प्रकार की दूसरी
चीजों के लिए कर लिया जाता है और वह प्रयोग इतना रूढ़ हो जाता है कि ऐसा लगता ही
नहीं है कि वह किसी अन्य शब्दार्थ का विस्तार है। इसे ही रूपक कहते हैं और रूपक
बनने की प्रक्रिया को रूपकीकरण कहते हैं।
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