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आभ्यंतर (Aabhyantar) SCONLI-12 विशेषांक ISSN : 2348-7771
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40. रंगभाषा :
संश्लिष्टता और वैचित्र्य
-
नवनीत कुमार, पी-एच.डी.
भाषा प्रौद्योगिकी
प्रस्तावना :
रचना के स्तर पर नाटक की भाषा का सवाल भाषाविज्ञान और व्याकरण के पारंपरिक
नियमों/सिद्धांतों या सूत्रों से हल करना संभव नहीं है । नाटक की भाषा केवल
शब्दाश्रित नहीं होती । वह एक संश्लिष्ट जैविक इकाई की तरह होती है । इनमें सार्थक
और निरर्थक ध्वनियों के अतिरिक्त मौन क्रिया-कलाप, मूकाभिनय, भाव-भंगिमाएँ, दृश्य बंध, चित्र, संगीत, प्रकाश आदि अवयव मिलकर उसे जीवंत रूप में दर्शकों तक संप्रेषित करने का
प्रयत्न करते हैं ।नाट्य रचना में भाषा का प्रश्न अत्यंत महत्त्वपूर्ण पक्ष हो गया
है । नाटक को विशिष्ट विधा माना गया है- क्योंकि इस विधा
में भाषा के साथ-साथ भाषेतर तत्त्व भी अपनी महत्ता रखते हैं ।
नाटक सिर्फ आलेख मात्र नहीं है और न ही वह सीधे पाठकों से जुड़ी होती है । वह
एक जीवंत (लाइव)
अनुभव है जो सिर्फ रंगमंच पर ही प्राप्त होती है । इसके
बिना नाटक की कहीं कोई परिणति नहीं है । रंगभाषा का निर्माणक अभिनेता होता है
।गिरीश रस्तोगी अपनी पुस्तक रंगभाषा में लिखती हैं कि – “रंगभाषा कोई बनी-बनाई भाषा नहीं है,वह एक ताजगी-भरी संश्लिष्ट भाषा है । उसे हम उसकी समग्रता में अनुभव कर सकतेहैं, एक ऐसी समग्रता और संश्लिष्टता जो पूर्वनिर्धारित नहीं है ।”[1] अर्थात् यह अनुभव जनित है; थोड़ा अलग हो सकता है ।
रंगभाषा में जीवंतता और उत्सुकता है । गिरीश रस्तोगी आगे लिखती हैं- “ रंगभाषा शब्दों में भी है, शब्दों के ध्वनियों में
भी है , और स्वरों के बालाघाट तथा ‘मौन’ में भी ।...
रंगभाषा में कौतूहल है, जिज्ञासा है । ” नाटककार, निर्देशक और अभिनेता (आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्विक सहित अन्य तत्त्व मिलकर) मौलिक सृजन करते हैं । इन क्षणों से होकर दर्शक गुजरता है और उसकी उपस्थिति भी रंगकला को प्रभावित करती
है । यही रंगभाषा की निर्मिति है । यह बनती भी है, और नहीं भी बनती है । इसके लिए समूह चाहिए और समूह में ग्रहणशीलता चाहिए ।
रंगभाषामें भाषिकऔर भाषेतर तत्त्वों का संघटन होता है ।भाषिक में वाचिकाभिनय, प्रतीक और बिंब तथा भाषेतर तत्त्वों में देहभाषा, लय, गति, मौन, दृश्य, वेश-भूषा और रूप सज्जा । इन सभी के तत्काल और सजीव संयोजन से रंगभाषा बनती है, बदलती है और कभी-कभी नहीं भी बनती है । रंगभाषा को प्रभावित करने वाले, रचने वाले प्रमुख कारक हैं- (i)अभिनेता (ii) दर्शक और (iii) निर्देशक । नाटक की भाषा को ये कैसे स्वतंत्र, जीवित भाषा में बदल देते हैं इनको समझना अपने आप में रोमांचक है ।
(i)
अभिनेता
रंगमंच का सर्वाधिक प्रमुख, अनिवार्य और जरूरी
तत्त्व है – अभिनय । अभिनय कला का मुख्य संबंध अभिनेता से है । अभिनेता नाटककार के शब्दों
को, उनके विचारों अथवा कहानी को सामने बैठे दर्शकों तक पहुँचाता है । अपनी उपस्थिति से नाटक कोजीवंत बनाता है । अभिनेता
का संपूर्ण व्यक्तित्व रंगभाषा का कार्य करता है ।”[2] उसका पूरा शरीर बहुत कुछ कहता है- उसका आकार-प्रकार, आयु, लंबाई-चौड़ाई, उसका खड़े होना, चलना-फिरना आदि उसके कार्य, व्यवहार की हर भंगिमा बहुत कुछ कहती है । स्वर का उतार-चढ़ाव, लय-टोन दर्शक तक नाटक के कथ्य और संवेदना को संप्रेषित करती है । संवाद प्रधान होने के कारण नाटक में वाच्य
तत्त्व प्रमुख हो जाता है । संवाद अभिनेता से ही दर्शक तक पहुँचते हैं और नाटक तथा
नाटककार से साक्षात्कार कराते हैं ।
बादल सरकार के तीसरे रंगमंच में अभिनेता ही उसकी सबसे बड़ी पूँजी है । कुशल
अभिनेता के विषय में गिरीश रस्तोगी लिखती हैं कि “एक कुशल अभिनेता को शरीर, वाणी, मन-मस्तिष्क से अधिक अनुशासित, ऊर्जावान् और विभिन्न
स्रोतों से ज्ञान प्राप्त कर समर्थ होना पड़ता है- सामान्य से भिन्न होना पड़ता है ।”[3] जो अभिनेता स्वभाव, मस्तिष्क, देह, वाणी से जितना लचीला होता है वह उतना ही प्रामाणिक और विश्वसनीय अभिनय कर
सकेगा ।अभिनय की दक्षता, कलात्मकता, उसकी समझदारी, रंग-विवेक, संवाद-चेष्टाओं और गतियों का संबंध आज के अभिनेता से अपेक्षित है । आज का दर्शक खेल
तमाशों जैसी शैली का नाटक नहीं चाहता है । अपने अनुभव को बताते हुए गिरीश रस्तोगी
लिखती हैं कि “दर्शक संवेदनात्मक अभिनय, भाषा, संवाद की अदायगी की सूक्ष्मता पर ज़्यादा ध्यान देता है, नाटकीय शिल्प पर नहीं । जितना ही समर्थ होते दर्शकों के बीच हम जाते हैं उतनी
ही हमारी चुनौतियाँ बढ़ती जाती हैं ।”[4]रंगकला मूलतः अभिनेता की सृजनात्मकता से रूपायित होती है और अपना अनूठापन
हासिल करती है । नाटक लिखा ही जाता है अभिनेता के लिए । दृश्य की रचना इसीलिए ही
होती हैं कि जो कुछ अभिनेता है और जो कुछ वह होना चाहता है,जो कुछ वह करता है और जो कुछ वह करना चाहता है, उन सबको एक वास्तविक परिवेश मिल सके । जिस स्पेस में नाटक खेला जाता है, अभिनेता उसे जीवंत बनाता है ।‘अभिनेता के असली
व्यक्तित्व को तथा उसकी पात्र की भूमिका के बीच जो तनाव है वह अपने आप में अर्थ
संप्रेषण करने वाला महत्त्वपूर्ण तत्त्व है जो दर्शकों तक पहुँचता है और उन्हें
प्रभावित करता है । जिस हद तक अभिनेता अपने व्यक्तित्व को बनाए रख कर भी उस चरित्र
की खूबियों को दिखाता है, उस हद तक दर्शकों की कल्पनाशीलता को जाग्रत करता है ।’[5]स्तानिस्लावस्की ने अभिनय को अनुकरण अथवा पुनर्प्रस्तुतिकरण नहीं, बल्कि रचनात्मक-कला माना है ।[6]...‘भारतीय आचार्यों ने अभिनय-व्यापार को ‘परकाया-प्रवेश’ कहा है । स्तानिस्लावस्की ने इस रूपांतर के दस चरण बताए हैं । प्रथम चरण में
अभिनेता को सोचना चाहिए कि वह उस भूमिका के लिए है अथवा नहीं, दूसरे में प्रदत्त परिस्थितियों का ध्यान, तीसरे में व्यवहार की
कल्पना, चौथे में स्वयं को ‘सार्वजिक एकांत’ में देखना, पांचवें में अंगों, मांसपेशियों में तनाव की अनुभूति, छठे में मूल चरित्र को
अनेक इकाइयों में बाँटना और अलग-अलग उद्देश्यों का
निर्धारण, सातवें में नाटकीय परिस्थितियों को निष्ठा के साथ ग्रहण करें, आठवें में व्यक्तिगत जीवन की भावात्मक स्मृतियों को जगाना, नवें में स्वयं को सहयोगी अभिनेताओं से जोड़ना और दसवें में वह अपनी
अंतश्चेतना को जागा लेगा और फिर वहाँ स्थित उसकी रचनात्मक प्रतिभा सचेष्ट हो उठेगी
।’[7]
(ii)
दर्शक
रंगमंच में अभिनेता और दर्शक का अटूट संबंध है । दोनों की जीवंत उपस्थिति
अपरिहार्य है । नाटक की रचना दर्शक-समूह के लिए होती है ।
दर्शकों के अभाव में नाटक का अस्तित्व न के बराबर है । नाटक का दर्शक स्वतंत्र है
। यह दर्शक शिक्षित-अशिक्षित, अमीर-गरीब, बच्चे-बूढ़े, स्त्री-पुरुष कोई भी हो सकते हैं । जब वह नाटक देख रहा होता है तो प्रत्यक्ष के साथ-साथ उसके मन में भी नाटक चल रहा होता है । दर्शक अपने पढे हुए, सुने हुए नाटक को भी ढूँढता है और अपनी दृष्टि से नाटक की उत्कृष्टता और उसकी
कमियों को पकड़ने की कोशिश करता है । दर्शक के संबंध मेन गिरीश रस्तोगी लिखती हैं
कि ‘अच्छा नाटक और रंगमंच दर्शक बनाता भी है और उसका मानसिक संस्कार भी करता है ।
उसे प्रत्यक्ष भागीदारी के लिए तैयार भी करता है ।’[8] अभिनेता और दर्शक के बीच लगातार जीवित संप्रेषण होता रहता है ।रंगमंच के
दर्शक को पूरी तरह से छूट है अपनी ओर से प्रतिक्रिया उसी वक्त करने या रचने की ।
प्रसन्ना अपनी पुस्तक में दर्शक के ध्यानाकर्षण पर लिखते हैं कि ‘As long as the
actor is concentrating, as long as he/she is building the character, the
audience will not notice anything but the actor. This is the secret of good
performance.’[9]
दर्शक से यह भी अपेक्षा नहीं होती कि वह नाटक पढ़ कर आए । हम देखते हैं कि नाटक
शुरू होने से पहले वह रंगशाला के बाहर अपने दोस्तों के साथ हँसी/मज़ाक आदि में मशगूल रहता है । जैसे ही वह रंगशाला में प्रवेश करता है घंटी
बजने के साथ ही वह स्वयं को नाटक देखने के लिए तैयार कर लेता है । मंच पर हो रही
गतिविधियों और हरकतों के साथ हो लेता है । वह कल्पना लोक में अभिनेता के साथ-साथ चलने लगता है । उसके चीखने पर च्च...च्च… च्च...
की ध्वनियाँ निकालने लगता है; तो कभी वह उसके हँसने पर हँसता भी है । मंच पर जब तक नाटक हो रहा होता है तब
तक दर्शक और अभिनेता एक दूसरे से अलग नहीं होता है । वर्तमान समय में निर्देशक भी
रंगकर्म की सबसे बड़ी हस्ती दर्शकों को ही मानते हैं । दर्शक ही सबसे नजदीक और
अभिन्न है । नाटक और प्रस्तुति दोनों का उद्देश्य दर्शकों द्वारा अपने कथ्य का
आस्वाद कराना है ।
(iii)
निर्देशक
भारतीय रंगमंच में पहले निर्देशक का उदय नहीं हुआ था, तब सूत्रधार होता था या नाटक अभिनेता-प्रधान होते थे ।
निर्देशक की परिकल्पना पश्चिम की है और वह हमारे आधुनिक रंगमंच में भी मुख्य रूप
से स्थापित हुआ । एडवर्ड क्रेग ने प्रस्तुतीकरण की कला को महत्त्व दिया कि ‘रंगमंचीय कला न अभिनय है, न नाटक, न दृश्य है न नृत्य, वह उन सभी तत्त्वों का एक निबंधित रूप है जिनसे ये सभी कलाएँ अपना रूप ग्रहण
करती हैं । क्रिया अभिनय का प्राण है, शब्द नाटक के शरीर है, रंग रेखाएँ सज्जा को अनुप्राणित करती हैं । लय और गति नृत्य की आत्मा है, इनमें से कोई भी ऊँचा नहीं है ।’[10]निर्देशक नाट्यलेख में पुनर्सृजन की खोज की । किसी भी नाटक की लिखित कृति को
निर्देशकीय परिकल्पना नाट्यनुभूति में रूपांतरित कर सकती है । एक सफल निर्देशक
किसी भी भाषा के नाटक की अनुभूति कराने और संप्रेषण में सफल हो सकता है । कम-से-कम शब्दों के नाटक को वह दूसरे तत्त्वों द्वारा वह क्रिएट करता है – अभिनेता, गतियाँ, मुद्राएँ, बिंब, ध्वनियाँ, संगीत आदि दृश्य-श्रव्य कलाओं द्वारा वह सृजन करता है । कम शब्दों में ज़्यादा जिसमें झींगुर, कुत्तों, पशु-पक्षियों की आवाजों के अतिरिक्त बहुत-से ध्वनि-प्रभाव, संगीत आदि पक्ष सक्रिय होते हैं । उनसे मिलकर रंगभाषा बनती है । निर्देशक
आलेख से लेकर प्रत्येक छोटी बड़ी चीजों को आत्मसात करता है । उस पर सम्यक् विचार
करता है । इस प्रक्रिया में कई बार उसे निराशा भी हाथ लगती है और जूझते हुए
रंगभाषा बनती है । हर बार प्रदर्शन स्थल बदलने से मंच बदलता है, दर्शक बदलते हैं । कभी खुला मंच मिलता है तो कभी बड़े सभागार । इससे अभिनेताओं
के आवाज का, अपनी ताकत का मूवमेंट में बदलाव लाने के लिए सदैव तैयार रहना पड़ता है । इसलिए
निर्देशक को लगातार अपने प्रशिक्षण के तरीके बदलने पड़ते हैं ।
निर्देशक का व्यक्तित्व, उसके संस्कार आदि भी
निर्देशन को प्रभावित करता है । किसी को विविधता पसंद है तो किसी को शैली विशेष, किसी को संगीत को महत्त्व देता है तो कोई भाषा को, चरित्र को, अभिनय को-
हर प्रकार से निर्देशक रंगभाषा के समग्र और संश्लिष्ट रूप का सर्जक है ।[11]वह नाटक को एक ऐसी गति प्रदान करता है जिससे दर्शक लगातार स्वयं को बिना तोड़े
नाटक का आस्वाद लेता है । निर्देशक की भूमिका पर देवेंद्रराज अंकुर चिंतन करते हुए
लिखते हैं कि ‘निर्देशक वस्तुतः नाटककार के आलेख से प्रस्तुति तक की यात्रा तक की यात्रा का
वाहक है । सबसे पहले वही उस आलेख को पढ़ता है, यदि उसे कथ्य के स्टार
पर अच्छा लगता है तो वह उसे मंच पर प्रस्तुत करने की दृष्टि से अभिनेताओं की मंडली
से साथ पढ़ता है ।’[12] निर्देशक को हम चाहे सर्जक, समन्वयक अथवा
व्याख्याकार जिस रूप में भी स्वीकार करें- रंगमंच में उसकी
भूमिका असंदिग्ध है । निर्देशक यदि अलग-अलग हों तो एक ही नाटक
को वे अपने-अपने व्यक्तित्व के अनुसार उसे अलग-अलग अर्थ सौंदर्य देते
हैं और उसकी प्रस्तुति शैली में अंतर लाते हैं ।
निष्कर्ष :
1.
रंगभाषा बनी-बनाई भाषा नहीं है, वह ताजगी भरी संश्लिष्ट भाषा है । उसे हम उसकी समग्रता (जो पूर्वनिर्धारित नहीं है) में ही अनुभव कर सकते
हैं । रंगभाषा केवल या पूर्ण समन्वय भी नहीं है- यह एक मानवीय अनुभव है; विलक्षणता हो सकती है पर अलौकिक नहीं । सामान्य और असामान्य का यह तनाव ही
रंगभाषा का वैचित्र्य है ।
2.
अभिनेता का संपूर्ण
व्यक्तित्व रंगभाषा का कार्य करता है । संवाद प्रधान होने के कारण नाटक में वाच्य
तत्त्व प्रमुख हो जाता है । संवाद अभिनेता से ही दर्शक तक पहुँचते हैं और नाटक तथा
नाटककार से साक्षात्कार कराते हैं ।
3.
नाटक की रचना दर्शक-समूह के लिए होती है । दर्शकों के अभाव में नाटक का अस्तित्व न के बराबर है ।
नाटक का दर्शक स्वतंत्र है । यह दर्शक शिक्षित-अशिक्षित, अमीर-गरीब,
बच्चे-बूढ़े, स्त्री-पुरुष कोई भी हो सकते हैं ।रंगमंच के दर्शक को पूरी तरह से छूट है अपनी ओर से
प्रतिक्रिया उसी वक्त करने या रचने की ।
4.
निर्देशक आलेख से लेकर
प्रत्येक छोटी बड़ी चीजों को आत्मसात करता है । उस पर सम्यक् विचार करता है । इस
प्रक्रिया में कई बार उसे निराशा भी हाथ लगती है और जूझते हुए रंगभाषा बनती है ।
5.
नाटक के पाठ को निर्देशक
अभिनेता की देहभाषा, भाव-भंगिमाओं, लय, गति, मौन आदि के मंचन द्वारा संवलित होकर दर्शकों तक संप्रेषित होती हैं ।
संदर्भ सूची
1.
अंकुर, देवेंद्रराज.(2006).
रंगमंच का सौंदर्यशास्त्र. नई दिल्ली :
राजकमल प्रकाशन
2.
जैन, नेमिचन्द.(1996).
रंगकर्म की भाषा. नई दिल्ली : श्रीराम सेंटर फॉर परफॉरमिंग आर्ट्स
3.
मिश्र, विश्वनाथ.(2016). स्तानिस्लावस्की :
अभिनेता की तैयारी. नई दिल्ली : राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय प्रकाशन
4.
रस्तोगी, गिरीश.(1999). रंगभाषा. नई दिल्ली :
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय प्रकाशन
5.
Prasanna,(2014).Indian
Method in Acting.NewDelhi : NSDPublication
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