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Tuesday, January 1, 2019

वेटिंग फॉर गोडो का भाषावैज्ञानिक निर्वचन


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आभ्यंतर (Aabhyantar)      SCONLI-12  विशेषांक         ISSN : 2348-7771

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33. वेटिंग फॉर गोडो का भाषावैज्ञानिक निर्वचन
शावेज ख़ान : पी-एच.डी. (अनुवाद अध्ययन) म.गा.अं. हिं. वि. वर्धा

प्रस्तावना
आचार्य यास्क के निर्वचन सिद्धांत
वैदिक वाङ्मय की भाषा बहुत जटिल, गहन तथा विस्तृत है। भाषा जितनी पुरानी होती है, उसमें जटिलतायें उतनी अधिक होती हैं। इसका कारण यह है कि जैसे-जैसे काल के चरण आगे बढ़ते चले जाते हैं, वैसे-वैसे नये युग के नये परिवेश में पले बढ़े लोग पूर्वजों की भाषा, भाव, संस्कार तथा परिस्थितियों से दूर होते चले जाते हैं। एक समय ऐसा आता है कि जब उन्हें पूर्वजों की भाषा और भाव को समझने में कठिनाई होने लगती है। ऐसा ही वैदिक वाङ्मय के साथ हुआ है।

साक्षात्कृतधर्मा ऋषियों, जो अपने पूर्वजों के प्रति पूर्णतः कृतज्ञ थे और जो अपने को अतीत की भव्य परम्पराओं से विच्छिन्न हेते नहीं देख सकते थे, ने इस प्रकार की व्यवस्था की कि जिससे आगे आने वाली पीढ़ियाँ अपने भव्य अतीत से न केवल परिचित हों, अपितु पूर्वजों के अनुभव से लाभान्वित भी हो सकें, एतदर्थ जिस प्रयास का श्रीगणेश किया गया, वह निरुक्तशास्त्र के रूप में हमारे सामने है।
मनुष्य अपने मन के अमूर्त भाव का जब बाहर संप्रेषण करता है तो वह उसे शब्द के खोल में बैठाता है और वह शब्द का खोल भी कुछ समझकर, कुछ उपपत्ति होने पर ही काम में लाता है। उसी समझ या उपपत्ति को ढूँढने का नाम है निर्वचन और विकसित, वैज्ञानिक सिद्धांतों का निश्चय करने पर जो रूप निखर-उभरकर सामने आता है, उसे कहते हैं निरुक्तशास्त्र।
निर्वचन के शाब्दिक अर्थ को जब शब्दकोशों में देखा जाता है तो मूल रूप से इसका अर्थ व्याख्या के रूप में निकाल कर सामने आता है।
निर्वचन के लिए अंग्रेज़ी शब्द ‘Interpretation’ का व्यापक रूप से प्रयोग किया जाता है। आज निर्वचन का क्षेत्र अधिकाधिक विस्तृत होता जा रहा है और यह संभव है कि आने वाले समय में निर्वचन का संपूर्ण एवं स्वतंत्र विधा के रूप में अध्ययन किया जाए। निर्वचन का अर्थ अंग्रेज़ी शब्दकोशों के अनुसार कुछ इस प्रकार है –
“Interpretation: an explanation of the meaning or importance of something.”[1]
उपर्युक्त संदर्भ के अनुसार यदि निर्वचन को परिभाषित किया जाए तो यह कहना अनुचित न होगा कि निर्वचन का अर्थ होता है- “किसी वस्तु के अर्थ या महत्व की व्याख्या।”
 Interpretation :
    noun
·        the action of explaining the meaning of something.
·        an explanation or way of explaining.
·        a stylistic representation of a creative work or dramatic role.[2]
उपर्युक्त संदर्भ दो के अनुसार यदि निर्वचन को परिभाषित किया जाए तो यह एक नहीं तीन अर्थों को उज्ज्वलित करता है। पहला अर्थ यह कहता है कि किसी वस्तु के अर्थ को व्याख्यायित करने की क्रिया को निर्वचन कहते हैं, दूसरा अर्थ यह कहता है कि  व्याख्या या व्याख्या करने का तरीका ही निर्वचन है और तीसरे अर्थ के अनुसार निर्वचन किसी रचनात्मक कार्य या नाटकीय अभिनय की शैलीवैज्ञानिक प्रस्तुति है।
साहित्यिक एवं भाषा-वैज्ञानिक रूपरेखा
साहित्यिक समीक्षा जब किसी रचना की समीक्षा या आलोचना उसके तत्वों के आधार पर प्रस्तुत करती है तो वह पूर्णतयः या तो उनके अनुभव या उनकी कल्पना पर आधारित होती है क्योंकि उनके पास इस साहित्यिक प्रवचन को विश्लेषित करने हेतु उपयुक्त प्रणाली नहीं होती। दूसरे शब्दों में साहित्यिक समीक्षा भाषावैज्ञानिक रूपरेखा के समान विषयनिष्ठ एवं व्यवस्थित मानदंडों पर आधारित भी नहीं होती।
एक साहित्यालोचक किसी भी रचना को उसके अपने अनुमान एवं उस रचना के रचनाकार के समसामायिक परिवेश, इतिहास एवं पृष्ठभूमि के आधार पर विश्लेषित एवं मूल्यांकित करता है। यही कारण है कि किसी अन्य विचारक के विचार से उसका अपना विचार मतभेद रखता है क्योंकि वह उसकी अपनी मानसिकता एवं जीवन दर्शन से प्रेरित होता है, जबकि एक  भाषावैज्ञानिक एवं शैली-वैज्ञानिक निश्चित उपकरणों एवं मानदंडों के आधार पर ही उस रचना का विश्लेषण एवं निर्वचन करता है।
कथ्यपरक सामग्री हेतु भाषाविज्ञान का एक अभिन्न अंग है शैली-विज्ञान, जिसके अंतर्गत स्वयं के सहजज्ञान एवं व्यक्तिगत प्रविधि आधारित विश्लेषण का अधिक महत्व नहीं होता-बल्कि यह विश्लेषण प्रत्यक्ष तथ्यों के आधार पर किया जाता है।”(Thornborrow and Warieng,1998)
एक शैली-वैज्ञानिक किसी पाठ का एक अंग चयनित करता है, फिर वह उस पाठ हेतु कुछ उपकरणों का प्रयोग कर उसका निर्वचन प्रस्तुत करता है। इस विश्लेषण का परिणाम यह होता है कि यह अध्ययन पाठ का निम्न दृष्टियों से निर्वचन करता है किंतु पाठ-विशेष को लक्ष्यजनित उपचार भी प्रदान करता है। सिम्पसन(1997) शैली-वैज्ञानिक विश्लेषण हेतु तीन महत्वपूर्ण तथ्यों की ओर संकेत करते हैं।
1.       सर्वप्रथम यह देखना की भाषा स्वयं में क्या महत्व रखती है अर्थात किस ओर संकेत करती है।
2.       संप्रेषण के संदर्भ में इसका क्या महत्व एवं उद्देश्य है।
3.       इसके अध्ययन से पूर्व एवं पश्चात आपके मस्तिष्क में विषय विशेष को लेकर क्या है।
इन तीन मुख्य बिंदुओं के आधार पर एक शैली-वैज्ञानिक किसी पाठ विशेष का विश्लेषण प्रस्तुत करता है। इन्हीं सब बिंदुओं को केंद्र में रखकर बैकेट के रहस्यात्मक नाटक वेटिंग फॉर गोडो के शैली-वैज्ञानिक अध्ययन की अनिवार्यता निरंतर बनी हुई है, जिससे इस नाटक में निहित आवरित संदेशों, संकेतों एवं नवीन प्रयोगों तक पहुँचने का प्रयास किया जा सके।
व्याकरणिक विचलन
द्वितीय विश्व युद्ध का जितना प्रभाव साधारण मनुष्य के जीवन पर पड़ा,  बैकेट ने उसी स्तर का प्रभाव अपनी भाषा में भी दर्शाया है। वस्तुतः शैली वैज्ञानिक अध्ययन का दायित्व होता है कि वो रचना के प्रत्येक पक्ष जैसे भाषा, कथानक, परिवेश आदि प्रत्येक पक्ष का अध्ययन प्रस्तुत करे। बैकेट ने अपने इस नाटक के माध्यम से अंग्रेज़ी भाषा के पहले से चले आ रहे स्वरूपगत क्रम को तोड़ा ताकि वह पाठक और दर्शक दोनों में उत्पन्न होने वाली रुचि की प्रकृति को भी बदल सकें। शैली वैज्ञानिक अध्ययन के अंतर्गत बैकेट द्वारा भाषा में उत्पन्न किए गए व्याकरणिक विचलन(Grammatical Deviation) का अध्ययन किया गया जिसमें वेटिंग फॉर गोडो की अव्यवस्थित भाषा को केंद्र में रखकर कुछ मुख्य संवादों को चयनित कर, उनमें प्रस्तुत व्याकरणिक विषमताओं के अध्ययन का प्रयास किया गया है। 
व्याकरणिक  व्यतिक्रम (Grammatical Deviation)’ शैली वैज्ञानिक अध्ययन के अंदर दो प्रकार से होता है जिसे सिम्पसन  (Simpson) कुछ इस प्रकार समझाते हैं। “either through an aspect of the text which deviates from a linguistic norm (called ‘deviation’) or, alternatively, where an aspect of text is brought to the fore through repetition or parallelism” (Simpson, 2004, p. 50) which is called ‘parallelism’.[3] अर्थात यह या तो मूल पाठ के उस पहलू से होता जो  भाषा वैज्ञानिक नियमों का विचलन करता है (जिसे व्यतिक्रम कहते हैं) या, जहां मूल पाठ की पुनरुक्ति या समांतरवाद द्वारा विचलन होता है।  नाटक वेटिंग फॉर गोडो में व्याकरणिक व्यतिक्रम होने का एक बड़ा कारण उसमें प्रयुक्त की गई भाषा है जिसमें बहुत से स्थानों पर वाक्यों के स्थान पर  पूर्ण रूप से पूर्वसर्गिक खंड(Prepositional Clause) एवं पूर्वसर्गिक वाक्यांशों(Prepositional Phrases) का प्रयोग किया गया है और बहुत से स्थानों पर क्रिया का पूरा-पूरा लोप होता दिखाई देता है जिसका उदाहरण आगे प्रस्तुत किया गया है।
विचलन:
VLADIMIR: Hand in hand from the top of the Eiffel Tower, among the first. We were presentable in those days. Now it's too late. They wouldn't even let us up.                                                       
वलाडिमीर : हाथ में हाथ डालकर जब हम आइफ़ल टावर से नीचे उतरे थे। जब हम बाइज़्ज़त समझे जाते थे। और अब? अब तो हमें ऊपर भी नहीं चढ़ने देंगे वह लोग।
वलाडिमिर के पहले कथन में उनके जीवन में व्याप्त हताशा का समावेश लक्षित है। किंतु अपने दूसरे ही कथन में वह संभावना से अधिक सकारात्मक नज़र आता है और कहता है कि उन्हें हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। जो कि कथानक की दृष्टि से संदिग्धता को जन्म देता है। किंतु यदि भाषा की दृष्टि से देखें तो पहला वाक्य सरल वाक्य न होकर संयुक्त वाक्य है जिसे क्रिया-विशेषणों द्वारा संकुचित किया गया है और अनियमित रूप से एक अल्प-विराम का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार यहाँ व्याकरणिक एवं लिपि-वैज्ञानिक व्यतिक्रम घटित हो रहा है।  दोनों खंड विषय और विधेय से वंचित है। अधिक बल पूर्वसर्गिक वाक्यांशों(PP) पर दिया गया है।
अर्थवैज्ञानिक विचलन
अर्थविज्ञान
भाषा के दायरे में शब्दों और वाक्यों के तात्पर्य का अध्ययन अर्थ-विज्ञान कहलाता है। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से पहले अर्थ-विज्ञान को एक अलग अनुशासन के रूप में मान्यता नहीं थी। फ़्रांसीसी भाषा-शास्त्री मिशेल ब्रील ने इस अनुशासन की स्थापना की और इसे 'सीमेंटिक्स' का नाम दिया। बीसवीं सदी की शुरुआत में फ़र्दिनैंद द सॅस्यूर द्वारा प्रवर्तित भाषाई क्रांति के बाद से सीमेंटिक्स के पैर समाज-विज्ञान में जमते चले गये। सीमेंटिक्स का पहला काम है भाषाई श्रेणियों की पहचान करना और उन्हें उपयुक्त शब्दावली में व्याख्यायित करना। ऊपर से सहज पर भीतर से पेचीदा लगने वाली अर्थ- संबंधी कवायदें सीमेंटिक्स की मदद के बिना नहीं हो सकतीं। उदाहरण के लिए नश्वर होते हैं लोगऔर नश्वर थे गाँधीके बीच अर्थ-ग्रहण के अंतर पर दृष्टि डाल कर सीमेंटिक्स की उपयोगिता का पता लगाया जा स कता है। दूसरे वाक्य का निहितार्थ यह है कि गाँधी को अमर माना जाता था या गाँधी जैसे लोग भी नश्वर होते हैं। सीमेंटिक्स यह पता लगाता है कि अर्थ-ग्रहण का यह अंतर पैदा करने में भाषा कैसे काम करती है।[4]
विचलन
बैकेट कृत असंगत नाटक वेटिंग फॉर गोडो में सबसे बड़ा अर्थवैज्ञानिक विचलन नाटक के शीर्षक में प्रयुक्त हुए शब्द GODOT को लेकर देखने को मिलता है। जब बात इस शब्द के उच्चारण को लेकर उठती है तो बैकेट स्वयं इस संदर्भ में कहते हैं कि
Beckett himself said the emphasis should be on the first syllable, and that the North Americanpronunciation is a mistake. Georges Borchardt, Beckett's literary agent, and who representsBeckett's literary estate, has always pronounced "Godot" in the French manner, with equal emphasis on both syllables.[5]
अर्थात उनके अनुसार Godot का सही उच्चारण God..oh है जिसमें पहले शब्दांश पर उनके द्वारा अधिक बल दिए जाने हेतु निर्देश दिया गया है। वेटिंग फॉर गोडो के मनोवैज्ञानिक निर्वचन को जब देखा जाता है तो वहाँ देखने को मिलता है कि किस प्रकार मनोवैज्ञानिक फ्रायड द्वारा दिए गए Id, Ego, Superego के सिद्धांत को नाटक के पात्रों के रूप में दर्शाया गया है। जहां नाटक के दो पात्रों के निजी नाम estragon (gogo) और Vladimir (didi) के रूप में दिखाई देते हैं। जेसिका स्टोरी द्वारा इस नाटक पर फ्रायड के सीधे प्रभाव को दर्शाया गया है किंतु जब इसी तथ्य को अर्थवैज्ञानिक एवं रूपवैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखते हैं तो एक प्रकार का भाषा वैज्ञानिक विचलन नाटक की भाषा के संदर्भ में उभरकर सामने आता है।
संज्ञा GOGOEgo को दर्शाती है किंतु इसका क्रम उल्टा लिखा गया है
संज्ञा DIDI Id को दर्शाती है किंतु इसका भी क्रम उल्टा लिखा गया है।
इस प्रकार यदि सही उच्चारण के अनुसार Godoh शब्द के क्रम को उल्टा करके लिखा जाए तो वह oh...God के रूप में प्रतिध्वनित होता है और यदि Godoh oh god है तो कहीं न कहीं बैकेट द्वारा स्वयं गोडो के संदर्भ में पैदा किए गए भ्रम का निवारण होता दिखाई देता है। खैर गोडो ईश्वर है कि नहीं यह तो दूसरा विषय है किंतु बैकेट द्वारा प्रयोग किया गया एक अलग ही प्रकार का भाषाई विचलन रचना की समकालीन परिस्थितियों से तो परिचित कराता ही है साथ ही द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद हुए भाषिक परिवर्तन के पीछे छिपे रहस्य को भी उद्घाटित करता है।
इस प्रकार निशाकर्षतः यह कहा जा सकता है कि प्रस्तुत शोधालेख  विश्व प्रसिद्ध नाटककार सैम्युअल बैकेट कृत वेटिंग फॉर गोडो के विभिन्न भाषावैज्ञानिक पक्षों के अवलोकन का एक समुच्चय है। बैकेट द्वारा नाटक की भाषा को लेकर किए गए कुछ नवीन एवं अटपटे प्रयोगों  के कारण यह विषय स्वयं में एक नया दृष्टिकोण रखता है। प्रस्तुत शोधालेख में भाषाविज्ञान की दो मुख्य शाखाएँ शैलीविज्ञान(stylistics) एवं अर्थविज्ञान(semantics) को आधार बनाया गया है साथ ही नाटक के हिंदी अनुवाद गाडो के इंतज़ार में से भी कुछ उद्धरणों को प्रस्तुत कर हिंदी एवं अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं के स्तर पर होने वाली त्रुटियों समानताओं एवं असमानताओं को दो मुख्य शाखाओं के आधार पर विश्लेषित करने का प्रयास किया गया है। बैकेट का यह नाटक एक असंगत नाटक है, जिसकी भाषा अत्यधिक विघटित एवं अस्त-व्यस्त है। वे भाषा के इस नवीनतम प्रयोग द्वारा दर्शक एवं पाठक दोनों के ही ध्यान को अपनी ओर आकर्षित करते हैं, ताकि वह अपने उद्देश्य को एक नए आयाम के साथ विकसित एवं प्रदर्शित कर सकें और अपने आत्म-मंथन द्वारा इस नाटक के संदर्भ में अपने विचार प्रस्तुत कर सकें। इस नाटक के माध्यम से वे बड़ी ही सरलता के साथ आधुनिक युग में मनुष्य की पीड़ाओं एवं व्यथाओं को दर्शाते हैं, जो उसके जीवन में व्याप्त धर्म, मान्यताओं, संबंधों एवं समय संबंधी समस्याओं में झांकती नज़र आती हैं। इस नाटक द्वारा वे असंख्य सामाजिक-राजनैतिक विषयों को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप में पाठक एवं दर्शक के सामने रखते हैं। यही कारण है कि इस नाटक की भाषा में प्रलक्षित नवीनता एवं असंगतता की गंभीरता को समझते हुए इसके शैली-वैज्ञानिक एवं अर्थवैज्ञानिक अध्ययन की अनीवार्यता का अपना महत्व है। साधारण पाठक हेतु इस नाटक की भाषा को व्याकरणिक स्तर पर समझने में तब समस्या उत्पन्न होती है, जब कहीं-कहीं बैकेट द्वारा पूर्वसर्गिक खंड एवं पूर्वसर्गिक विभक्ति या संबंध सूचक अव्यय को पूर्ण वाक्य के रूप में प्रस्तुत किया जाता है किंतु यही प्रयोग शोध कर्ताओं के लिए शोध के नए आयामों को खोल देता है, जहां वह अपने बुद्धि कौशल के अनुसार रचनात्मक अर्थ एवं निर्वचन प्रस्तुत करने में समक्ष हो पाते हैं। एक नाटक संवादों द्वारा क्रियाओं को प्रस्तुत करने का सशक्त माध्यम होता है। जब एक पात्र दूसरे पात्र द्वारा बोले गए संवादों को समझने एवं प्रतिक्रिया देने में बिल्कुल असमर्थ दिखाई देता है, तो ऐसी स्थिति में असंगतता का जन्म होता है, जिसका संबंध प्रस्तुत कथ्य में प्रस्तुत अर्थहीनता एवं संदर्भहीनता से होता है और यही स्थिति असंगत प्रवृत्ति को जन्म देती है। एक सामान्य पाठक इस नाटक में प्रस्तुत किए गए संवादों के संदेशों को हास्य-व्यंग्य समझ कर मनोरंजित होता है किंतु शोध-कर्ताओं को यही संवाद बहुवैकल्पिक अर्थों एवं आयामों के नए क्षितिज पर ले जाते हैं।
बैकेट कृत वेटिंग फॉर गोडो एक ऐसा नाटक है जिसकी अस्त-व्यस्त कथानक एवं कथा के अभाव को समझना एवं व्याख्यायित करना अत्यधिक कठिन एवं दुष्कर कार्य है। पाठक इस नाटक के अत्यधिक शिष्ट पात्रों के साथ तदात्मय स्थापित नहीं कर पाता, जो कि अत्यधिक आडंबरपूर्ण एवं मनमोहक भाषण देने में कुशलताप्राप्त हैं। इसी संदर्भ में विश्वविख्यात आचार्य मार्टिन ऐसलिन अपना विचार रखते हुए बोलते हैं कि-
Dialogue seems to have degenerated into meaningless babble.”
अर्थात संवादों को देख ऐसा लगता है कि जैसे वे पतित अर्थहीन प्रलाप हैं। इस प्रकार की विशेष अर्थहीनता ही असंगतता का मूल आधार है, यदि यह न हो तो संदर्भ, कथानक एवं अर्थ एक सामान्य नाटक के समान हो जाते हैं। अतः असंगत नाटक की यह विशेषता इसे अन्य नाटकों के स्वरूप से अलग करती है।
अर्थविज्ञान के स्तर पर यदि नाटक वेटिंग फॉर गोडो को देखा जाए तो इसके शीर्षक में प्रयोग हुई संज्ञा ‘godot’ को लेकर आज तक विचार-विमर्श होता आ रहा है। गोडो(godot) कौन था? वह कैसा दिखता है? वह कब आएगा? वह कब आया था? वह क्या करता है? वह कहाँ का रहने वाला है? वह नाटक के पात्रों को कैसे जानता है? उसे आने में इतनी देर क्यों हो रही है? आदि कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिन्हें नाटक के मंचन एवं पाठन के  समय उभरते हुए देखना एक सामान्य सी बात है क्योंकि यह एक असंगत नाटक है। किंतु गोडो के नाम को ही लेकर अगर सही निर्वचन प्रस्तुत किया जाए तो संभव है कि नाटककार द्वारा इस नाटक विशेष के संदर्भ में छोड़े गए कुछ प्रमाणों के माध्यम से एक नई व्याख्या एवं निर्वचन को प्रस्तुत किया जा सके। प्रस्तुत शोधालेख में इसी आवरण को हटाने का प्रयास किया गया है।
संदर्भ
1.       श्रीवास्तव, भुवनेश्वर प्रसाद. (2004). भुवनेश्वर के अमर एकांकी - कारवां. इलाहाबाद. लोकभारती प्रकाशन
2.       Beckett, Samuel. Prasad, G.J.V(Ed.). (2004). Waiting For Godot. Faber And Faber.
3.       वैद, कृष्ण बलदेव(अनुवादक). (1999). गादो के इंतज़ार में. दिल्ली. कश्मीरी गेट. राजपाल एंड संस.
4.       Slade, Andrew. (2016). Psycho Analytic Theory And Criticism By Way Of An Introduction To The Writings Of Sigmund Freud. Hydrabad 500 029. Himayatnagar 3-6-752. Orient Black Swan Pvt. Ltd
5.       Shaw, George Bernard. 2012. Candida. Create Space Independent Publishing Platform
6.       Esslin, M. (2001) The Theatre Of the Absurd. London: Methuen Publishing Ltd.
7.       पं. शास्त्री शिवनारायण, निरुक्तमीमांसा, पृ.सं.- 03, इंडोलोजिकल बुक हाउस, नई दिल्ली/            वाराणसी।
8.       प्रो. सिंह, दिलीप, भाषा का संसार, 2008, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
9.       प्रसाद, धनजी, भाषाविज्ञान का सैद्धांतिक अनुप्रयुक्त एवं तकनीकी पक्ष, 2011, प्रिय साहित्य सदन, दिल्ली
10.    [1] http://www.samuel-beckett.net/L2BeckEssay.html, 10:30, 03/05/2016
11.      Carbb, J.P.(2006, September3). Theatre of the Absurd, Theatre Debase. Retrieved                    on June 13, 2016 from World Wide Web:http://www.theatredatabase.com/20th_century/theatre_of_the_absurd.html
12.    Verma,S.K, Krishnaswamy.N(1989), Modern Linguistics An Introduction. New Delhi: Oxford university press.
13.    डॉ. पाण्डेय शशिभूषण शीतांशु’(2007), शैली और शैली विश्लेषण, दिल्ली: वाणी प्रकाशन.
14.   डॉ. पाण्डेय शशिभूषण शीतांशु’(2007), शैलीविज्ञान का इतिहास, जयपुर: नेशनल पब्लिशिंग हाउस.



[1] MACMILLAN ENGLISH DICTIONARY FOR ADVANCED LEARNERS
[2] Google search : definition of interpretation
[3] Language in India www.languageinindia.com 12 : 9 September 2012 Saira Akhter and Mazhar Hayat Grammatical Deviations in Samuel Beckett’s Waiting for Godot
[5] https://en.wikipedia.org/wiki/Waiting_for_Godot

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