Total Pageviews

Tuesday, January 1, 2019

राग दरबारी उपन्यास की भाषा-शैली

.........................................................................................................................

आभ्यंतर (Aabhyantar)      SCONLI-12  विशेषांक         ISSN : 2348-7771
 .........................................................................................................................
22. राग दरबारी उपन्यास की भाषा-शैली
रेनू सिंह : पी-एच.डी. भाषाविज्ञान एवं भाषा प्रौद्योगिकी, म.गां.अं.हिं.वि. वर्धा
     
भाषा के सृजनात्मक प्रयोगों को साहित्य कहा जाता है। इसीलिए सृजनात्मक साहित्य के विवेचन विश्लेषण की आवश्यकता का अनुभव भी किया गया है। वास्तव में साहित्य को समझने-समझाने के अनेक सिद्धांत एवं प्रणालियां प्रचलित हैं। शैलीविज्ञान भी साहित्य समझने-समझाने की एक सिद्धांत एवं प्रणाली के रूप में हमारे सामने आता है।
श्रीलाल शुक्ल के “राग दरबारी” उपन्यास का प्रकाशन 1968 ई. में हुआ था।1970 ई.में इसे साहित्य अकादमी पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया था। श्रीलाल शुक्ल, के उपन्यास ‘राग दरबारी’में भाषा के अद्भुत प्रयोग को देख सकते हैं। इस अद्भुत भाषा के प्रयोग के कारण ही राग दरबारी उपन्यास में सर्वथा नई और अनूठी शैली का उन्मेष हुआ है। लेखक की शैली में एक खास तरह की ताजगी और कलात्मक अभिव्यक्ति का सन्निवेश है।
श्रीलाल शुक्ल की गढ़ी हुई भाषा ने उनकी शैली को भाव व्यंजक सुष्ठु तथा प्रौढ़ रूप प्रदान किया है। जटिल से जटिल भाव की अभिव्यक्ति करते समय भी ऐसा प्रतीत होता है, कि मानों शब्द उनके पास अपने-आप ही दौड़े हुए चले आते हैं। वास्तव में शुक्ल जी की भाषा उनके भावों तथा विचारों को अभिव्यक्त करने में पूर्णतया समर्थ, सक्षम और सशक्त है।
राग दरबारी में मुख्यतःभाषा के दो रूप मिलते हैं। एक रूप गँजहे लोगों की बोलचाल में, संवाद में उभरता है और गँजहों की मानसिकता को, चरित्र को, आकार देता है। दूसरा रूप लेखक की अपनी व्यंग्यात्मक, हास्योत्पादक शैली हैं।
लेखक ने परिवेश को प्रमुखता दी है, अतः शैली में वर्णनात्मकता प्रचुर रूप में आती हैं। परंतु इस वर्णनात्मकता को चित्रांकन शक्ति से तथा मूर्तिकरण की कला से जीवंत बना दिया  हैं। ट्रक का, थाने का, मेले का, दुकानों का, कॉलेज का वर्णन इस संदर्भ में किया गया है। वस्तुओं, स्थितियों तथा व्यक्तियों का वर्णन करते समय लेखक एक स्तर पर उसकी वास्तविकता को उजागर करते हुए दूसरी और उसमें छिपी असंगतियों को हास्योत्पादकता को उधाड़ता चलता है।
कुछ बेशर्म लड़के भी हैं जो कभी- कभी इम्तहान पास कर लेते हैं।
इस प्रकार के वाक्य लेखक लगातार लिखता जाता है।
यह हमारी गौरवपूर्ण परंपरा है कि असल बात दो चार घंटे की बातचीत के बाद अंत में ही निकलती है लेखक की भाषा शैली में सूचित संदर्भ पर विचार किया जाये तो ये संदर्भ पर्याप्त व्यापक परिवेशगत स्थितियों से किये गये दिखाई देते हैं । इस संदर्भो में राजनीतिक, सामाजिक स्थितियों का संकेत होता है जन-मानस का गहरा परिचय दिखता हैं। भाषा -शैली में चुलबुलापन है, चुटीला व्यंग्य है कभी सीधे चोट करने की प्रवृत्ति हैं। कहीं दूर तक अर्थ की गूँज पैदा करने वाले वाक्य हैं।  ग़जब की वक्रता दो टूक ढंग से बात करते हुए प्रकट होती हैं।
      शिवपालगंज के लोगों की भाषा में उखाड़-पछाड़, बेलाग चुभतापन, बेरोकटोक अक्खड़पन मुँहफट बेबाकपन स्पष्ट होता हैं। गाली-गलौज के साथ कुछ ग्राम्य जीवन की भदेस अनगढ़ भाषा का प्रयोग भी हैं। सनीचर, छोटे पहलवान, रुप्पन की भाषा वैशिष्ट्यपूर्ण हैं। प्रिंसिपल की ब्रजभाषा और जोगनाथ की सर्फरी बोली ने अपना अलग रंग जमाया हैं। कुछ उदाहरण –“अण्डा नहीं देंगे तो क्या बाल उखाड़ेंगे? सब मीटिंग में बैठकर राँड़ों  की तरह फाँय-फाँय करते हैं, काम-धाम के वक्त खूँटा पकड़कर बैठ जाते हैं ।”राग दरबारी’में गयादीन, वैद्यजी की भाषा और अन्य पात्रों की भाषा का अंतर भी देखा जा सकता हैं।
व्यंग्य का उपयोग विसंगतियों पर प्रकाश डालने के लिए सर्वत्र किया गया हैं। अखबार विज्ञापन, लेक्चरबाजी आदि के सम्बन्ध में यह व्यंग्य पैना हो गया हैं।
हास्य और व्यंग के नए तेवर राग दरबारी उपन्यास में सर्वत्र दिखाई देते हैं। भाषा की यह व्यंजना संवेदना को अधिक विक्षुब्द बनाती है। यह राग दरबारी उपन्यास की भाषा का प्रमाण है। उदहारण  के लिए उपन्यास के आरंभ में से ही ट्रक का पूरा बिंब लोकतांत्रिक व्यवस्था की मूल्यविहीनता का संपूर्ण प्रतीक है। ग्रामीण और शहरी रिक्शा वाले हमारे सामाजिक जीवन दृष्टि को दो रूपों को प्रतिबिंबित करते हैं। इसी प्रकार गँजहापन एक विशिष्ट प्रकार की  जीवन शैली हैं। उसका भाषा प्रयोग, लोक व्यवहार और रिति-रिवाज अलग हैं। उसमें गाँव की मासूमियत और शहरी चतुराई का सुखद संयोग है। व्यावहारिक जीवन में कार्यों की अतार्किक परिणति से व्यंग्य की सृष्टि हुई हैं। व्यंग्य केवल पात्र ,परिवेश और संस्थान के प्रति ही नहीं अपितु उससे जीवन पद्धति का भी अंतर्विरोध प्रकट हो गया हैं। छंगामल विद्यालय पर टिप्पणी करते हुए लेखक लिखता है “इन्हीं सब इमारतों के मिले-जुले रूप को छंगामल विद्यालय इण्टरमीजिएट कॉलेज शिवपालगंज कहा जाता है। यहाँ से इण्टरमीजिएट पास करने वाले लड़के सिर्फ इमारत के आधार पर कह सकते थे कि हम शांति निकेतन से भी आगे हैं, हम असली भारतीय विद्यार्थी हैं, हम नहीं जानते कि बिजली क्या है, नल का पानी क्या है, पक्का फर्श किसको कहते हैं, सैनिटरी फिटिंग किस चिड़िया का नाम हैं। हमने विलायती तालीम तक देसी परंपरा में पायी है और इसलिए हमें देखो, हम आज भी उतने प्राकृत हैं। हमारे इतना पढ़ लेने पर भी हमारा पेशाब पेड़ के तने पर उतरता है, बंद कमरे में ऊपर चढ़ जाता हैं।” 
जीवन और समाज की विश्वसनीय अभिव्यक्ति के लिए राग दरबारी की भाषा की भंगिमा पात्र परिवेश और  विषय वस्तु के अनुसार बदलती है, उदाहरण के लिए ‘थाना और अदालत की भाषा में उर्दू मिश्रित शब्दों का प्रयोग मिलता है,चूँकि उत्तर भारत में कचहरियों में आज भी उर्दू का प्रचलन व्यापक रूप से है कानून की भाषा का उदाहरण - बैजनाथ ने सबूत का पूरा मुकदमा दोहरा दिया। बताया जोगनाथ के घर की तलाशी मेरी मौजूदगी में हुई,ये तीन जेवर मेरे सामने से बरामद हुए, इन्हें मेरे सामने मुहर बंद किया गया, बरामदगी की रिपोर्ट मेरे सामने लिखी गई, इस पर मेरा दस्तखत मेरे सामने ही हुआआदि। इस उपन्यास की भाषा में अनुभव की विविधता है।
 “राग दरबारी” मेंवस्तुगत भयावहता को भाषा के सतर्क और बेधक मुहावरे में अभिव्यक्ति मिली है। मोहभंग,अवमूल्यन, अमानवीयकरण की त्रासद, विडंबनापूर्ण और विद्रूपमई स्थितियों और मनःस्थितियों को उकेरने में कहावतों, दृष्टांतों और प्रतीकों से समृद्ध भाषा अभिप्राय के विभिन्न स्तरों को खोलने में सफल है।
·     “वर्तमान शिक्षा-पद्धति रास्ते में पड़ी हुई कुतिया है, जिसे कोई भी लात मार सकता है।”
·     नैतिकता, समझ लो कि यही चौकी है। एक कोने में पड़ी है। सभा- सोसाइटी के वक्त इस पर चादर बिछा दी जाती है।
·     .......तुम्हारा गियर तो बिलकुल अपने देश की हुकुमत जैसी है।’
·     वे झपटकर इतिहास के कमरे में घुसे और यही कहते हुए पुराणके रोशनदान से बाहर कूद आये।”
      इन अवतरणों में आये ‘गियर’, ‘कुतिया’, ‘चौकी’, ‘रोशनदान’ आदि की सहायता से बनी हुई भाषा यदि बहुत ठेठ, निस्संग और आक्रामक लगती है तो यह उसमेंकेंद्रस्थ वस्तुगत भयावहता की स्वाभाविक परिणति है।
 भाषा जीवन और साहित्य के बीच की कड़ी है।यह व्यक्तिगत अनुभवों एवं विचारों को समाज तक सम्प्रेषित करने का एक अनिवार्य माध्यम है। उपन्यास कि भाषा तो जीवन की भाषा होती हैं। श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास ‘राग दरबारी’ में तत्सम शब्द,अंग्रेजी शब्द, युग्म-शब्द, मुहावरों और कहावतों का प्रयोग भी देख सकते हैं। जैसे-
·         तत्सम शब्द-  क्षमा, बलात्कार, ग्राम्य, साक्षरता, नैतिकता, जन्म, आदि।
·         अंग्रेजी शब्द- ट्रक, सुपरवाइजर, प्रिंसिपल, कालेज, पुलिस, गियर, यूनियन, पॉलिटिक्स, मैनेजर, ब्रेक, ड्राइवर आदि।
·         युग्म-शब्द- रात-दिन, तिड़ी-बिड़ी, एक-एक, शिलिर-विलिर, आँधी-पानी, दौड़-धूप आदि हैं।
·         मुहावरें- मुहावरों से भाषा की अभिव्यक्ति अधिक सामर्थ्यवान बनती है। उपन्यास के कुछ मुहावरे उदा.- बात के बतासे फोड़ना, खेत की मूली उखाड़े न उखड़ना, तीन तेरह करना, मुँह की बात छीन लेना, रास्ता नापना, गाज गिरना आदि।
·         कहावतें- मुहावरों की तरह कहावतों का प्रयोग भी श्रीलाल शुक्ल ने कथ्य के अनुरूप किया है। कुछ उदाहरण- वर्तमान शिक्षा पद्धति रस्ते में पड़ी हुई कुतिया है, गाय ही चली गई तो पगहे का क्या अफसोस, गागर में सागर, हम किस खेत की मूली है, कुत्ते भूँकते जाते हैं, आदि।
पाठक व्यंग के मीठे-तीखे-चटपटे स्वाद में इतना मगन रहता है कि स्फीतिकारी अंश और संरचनागत दरारों की ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता है। हिंदी के अन्य किसी भी उपन्यास में व्यंग्यात्मकता का इतना विशद बेधक और प्रहारक भंगिमाएं सर्जनात्मक रुप में समाहित नहीं हुई हैं।
इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि इस उपन्यास में भाषा-शैली के माध्यम से लेखक ने शिवपालगंज के बहाने पूरे देश की दशा और दिशा का जो पूर्वानुमान लगाया था वह इतने दशको के बाद भी किसी-न-किसी रूप में भयावह रूप धारण करके प्रस्तुत हो रहा हैं। एक कठिन यथार्थ को व्यंग्यात्मक रूप में प्रस्तुत करने की भाषा-शैली अपने पाठक को भीतर तक झक-झोर जाती हैं।

संदर्भ-ग्रंथ सूची-

Ø तिवारी, भोलानाथ. शैलीविज्ञान (1997), शब्दकार, दिल्ली.
Ø ‘पांडेय’,  शशिभूषण शीतांशु. शैली और शैली विश्लेषण (1996), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली.
Ø शुक्ल,  श्रीलाल. राग दरबारी (2008), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली.
Ø पटेल, सुरेश, श्रीलाल शुक्ल : एक अध्ययन (2009) साधना प्रकाशन, कानपुर.
Ø एम.एच.डी. -15, हिंदी उपन्यास-2.
Ø अवस्थी, रेखा, राग दरबारी आलोचना की फांस (2014), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली.
Ø मधुरेश, राग दरबारी का महत्त्व (2015), लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद.








1 comment:

  1. पता है आपके इस लेख को लोग अपने असाईनमेंट में राग दरबारी की भाषा की विशेषताएं के रुप में लिख रहें हैं। लोग फांकीबाज हुए जा रहे हैं।

    ReplyDelete