.........................................................................................................................
आभ्यंतर (Aabhyantar)
SCONLI-12
विशेषांक ISSN : 2348-7771
.........................................................................................................................27. वाचिक
वर्हाडी बोली के लोकगीतों का हिंदी अनुवाद: समस्याएँ
विद्या दिलीप चंदनखेडे : पी-एच.डी. (अनुवाद अध्ययन), म.गाँ.अं.
हिं. वि. वर्धा
अनुवाद दो संस्कृतियों
के परस्पर बोध का सशक्त माध्यम हैं। इसे दो संस्कृतियों के बीच सेतु कहते हैं ।
वास्तविक देखा जाए तो अनुवाद परस्पर भाषाओं को जोड़ता हैं । सामान्यतः यह कहते हैं
कि जो दो भाषाओं को जानता हैं समझता हैं वही सरलता और सफलता के साथ स्त्रोत भाषा
से लक्ष्य भाषा में अनुवाद करता हैं। लेकिन यह बात सही नहीं हैं । क्योंकि हर भाषा
की अपनी अलग प्रकृति होती हैं, उसकी संस्कृति होती
हैं और अपना इतिहास होता हैं। इसे पूर्णत: जाने बिना हम अनुवाद नहीं कर सकेंगे तो
अनुवाद सरल, सहज नहीं होगा । अनुवाद करते समय अनुवादक को
दोनों भाषाओं की मूल संस्कृति का गहराई के साथ परिचय होना अनिवार्य हैं।
भाटिया कैलाश
चंद्र ‘भारतीय भाषाएं और हिंदी अनुवाद समस्या
समाधान’, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली- तृतीय संस्करण, (2004) के अनुसार
हर भाषा में अपनी आंचलिक
विशेषताएँ होती हैं । ग्रामीण साहित्य भी इस शब्द-भंडार से परिपूर्ण हैं । मराठी के कई शब्दों का इस दृष्टि से अनूदित
होना कठिन है । उनको जैसा है वैसा ही रखना और उनको यथास्थान कुछ विस्तार से लिखना
उचित होगा। जैसे- पावायला (पहुँचने के लिए) अपने खयं (खरसत्य), डांब(खांब), मानसा(माणसा-माणूस), सांस्कृतिक परिवेश फिर भी आचार और संस्कृति में भिन्नता होने के कारण देवदासी (रामजनी)
पोतराज (बेताल और लक्ष्मी भक्त), गोधवी (गाने वाली जाति), तथा उसके गीत और उनमें होने वाली, व्यक्त भावनाएँ
भावसाम्य द्वारा कुछ अलग शब्दों से ही व्यक्त होंगी। जैसे-पोतराज की एक पुकार हैं “आ$$य! लक्ष्मी आली धरातिचा बहुमान करा-क$$क कोल्हापुरची, लखापुरची लक्ष्मी, गणराय” इसके क$$क विशेषण
छोडकर भावसाम्यात्मक अनुवाद किया जा सकता हैं ।
रीति-रस्म की बारीकियों
तथा उनकी छोटी-छोटी चीजों का अनुवाद करना साधारण कार्य नहीं। उनके लिए सद्भाव और
कार्यप्रवण प्रवृत्ति की जरूरत हैं । भाव सामंजस्य के लिए मिलन सारी से ही यह संभव
हैं।
संबंधवाचक रिश्ते दिखाने के लिए मराठी की
अपेक्षा हिंदी में काफी अधिक शब्द मिलते हैं । जैसे- आजा-आजी के लिए हिंदी में
दादा-दादी और नाना-नानी ये शब्द और पिता और माता के पिता-माता को लेकर हमें
प्राप्त हैं। वैसे ही देवर- देवरानी,
जेठ-जेठानी, ताऊ चाचा, ये शब्द मराठी
में दीर- भाऊजइ, चुलता-चुलती तक ही सीमित हैं । फूफा-फूफी
(भुआ-फूफू), बुआ, फूआ के लिए मराठी में
केवल ‘अतोबा’ और ‘आत्या’ शब्द मिलते है।
साथ-साथ अपनी अलग रीति
रस्में तथा पहनावा होने के कारण उनका अनुवाद हो सकता हैं, सूक्ष्म तथा भाव और अळर्थ संपन्न कदापि नहीं । मराठी की ‘नऊ-सहां पाँच वारी साड़ी’‘साड़ी चोली’ केवल साड़ी और चुनरी नहीं हो सकती
वह कुछ निश्चय ही अधिक अर्थवत्ता रखती हैं । इसी तरह से महाराष्ट्र में
बनने वाली पैठणी साड़ी, शालू, शेला, अंतरपाट वस्त्र, उपरणें आदि अनेक वस्त्र अपनी –अपनी
विशेषता के साथ रहेंगे। फेटा, साफा,
पगड़ी भी मराठी और हिंदी भू-भाग में बांधने की विविधता के कारण अलग हैं । हर रियासत
की पगड़ी अलग-अलग नोंक लेकर बांधी जाती थी। मराठी का सरदा बंडी, बाराबंदी सिर्फ कुर्ता, झब्बा से अलग है । पागोटे
एक अलग ही मराठी शिरो-भूषण है ।शिवाजी के समय ‘’डोइस मुंडासे’ अलग था जो आज की पगड़ी से काफी भिन्न था । हिंदी में ननसाल, ननिहाल, पीहर, मायका, मैका के लिए मराठी में केवल आजोळ-माहिर शब्द है पर मराठी में ‘पंजोळ’ हैं जो हिंदी में नहीं । माँ का ननिहाल स्थल ‘पंजोळ’ है । मौसा के लिए मराठी में शब्द नहीं हैं।
एक भाषा को दूसरी भाषा में अन्तरण की प्रक्रिया
में अनुवादक दो भिन्न संस्कृति में स्थित समतुल्यता की खोज करता है। उसे
पर्यायवाची शब्दों के विविध रूपों से जूझना पड़ता है। इसी खोज और संतुलन बनाने की
प्रक्रिया में कभी-कभी एक ऐसा भी मोड़ आता है जहाँ अनुवादक को निराश होना पड़ता
है। समतुल्यता या पर्यायवाची शब्द हाथ न लगने की निराशा। अननुवाद्यता (unsuitability) की यही स्थिति अनुवाद की
सीमा है। जरूरी नहीं कि हर भाषा और संस्कृति का पर्यायवाची दूसरी भाषा और संस्कृति
में उपलब्ध हो। प्रत्येक शब्द की अपनी सत्ता और सन्दर्भ होता है। कहा तो यह भी
जाता है कोर्इ शब्द किसी का पर्यायवाची नहीं होता। प्रत्येक शब्द एवं रूप का
अपना-अपना प्रयोग गत अर्थ-संदर्भ सुरक्षित है। इस दृष्टि से एक शब्द को दूसरे की
जगह रख देना भी एक समस्या है। स्पष्ट है कि हर रूप की अपनी-अपनी समस्याएँ हैं जिसमें
अनुवाद की सामाजिक-सांस्कृतिक सीमाएँ
एक भाषा को दूसरी भाषा में अन्तरण की प्रक्रिया
में अनुवादक दो भिन्न संस्कृति में स्थित समतुल्यता की खोज करता है। वास्तव में
मानव अभिव्यक्ति के एक भाषा रूप में भौगोलिक, ऐतिहासिक और सामाजिक-सांस्कृतिक तत्त्वों का
समावेश हो जाता है जो एक भाषा से दूसरी भाषा में भिन्न होते हैं। अत: स्रोत-भाषा
के कथ्य को लक्ष्य-भाषा में पूर्णतया संयोजित करने में अनुवादक को कर्इ बार
असमर्थता का सामना करना पड़ता है। यह बात अवश्य है कि समसांस्कृतिक भाषाओं की
अपेक्षा विषम सांस्कृतिक भाषाओं के परस्पर अनुवाद में कुछ हद तक अधिक समस्याएँ
रहती हैं। ‘देवर-भाभी’, ‘जीजा-साली’ का अनुवाद यूरोपीय भाषा में
नहीं हो सकता क्योंकि भाव की दृष्टि से इसमें जो सामाजिक सूचना निहित है वह शब्द
के स्तर पर नहीं आँकी जा सकती। इसी प्रकार भारतीय संस्कृति के ‘कर्म’ का अर्थ न तो ‘aaction’ हो सकता है और न ही ‘aperformance* क्योंकि ‘कर्म’ से यहाँ पुनर्जन्म निर्धारित
होता है जबकि ‘aaction’
और ‘performance* में ऐसा भाव नहीं मिलता।1
वैसेही वऱ्हाडी बोली विदर्भ की एक
प्रमुख बोली है। जो प्रमुख रूप से विदर्भ के ग्रामीण क्षेत्रों में बोली जाती है।
इस बोली का भाषाई क्षेत्र बुलढाना जिले के पूर्वीय भाग से वऱ्हाडी लेकर तापी नदी
तक फैला है और वहाँ से पूर्व की तरफ अचलपुर, बैतुल, छिंदवाडा, शिवनी, बालाघाट आदि
का दक्षिण भाग वऱ्हाडी बोली में आता है। वऱ्हाडी बोली प्रमुख रूप से बुलढाणा, अकोला, वाशिम, यवतमाल, और पश्चिम वर्धा के पश्चिम भाग तक बोली जाती है। “परंपरा से जाने के कारण
इसे वऱ्हाड नाम पड़ा/ जार्ज गिर्यसन द्वारा किए गए बोली सर्वेक्षण में इस बोली को
महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है।“वऱ्हाड और मध्य प्रांत के दक्षिण क्षेत्र में बोली
जाने वाली इस बोली का क्षेत्र विस्तृत है। इस वाचिक वऱ्हाडी बोली के लोकगीतों का
हिंदी अनुवाद : सांस्कृतिक समस्याएँ निम्नलिखित
मूल लोकगीत
पाच पानायचा इडा, बाई इडा
यान मारुती आपला मान, आपला मान
पाया लागते बाशिंगानं, बाशिंगानं
पाच पानायचा इडा बाई इडा
देवू केला म्या कुंभाराले, कुंभाराले
आणा चारुत नानू नानुऱ्याले, नानुऱ्याले
पाच पानायचा इडा बाई इडा
देवू केला म्या वाडीयाले, वाडीयाले
पेडे आणले नानुऱ्याले, नानुऱ्याले
पाच पानायचा इडा बाई इडा
देवू केला म्या कसाराले, कसाराले
हिरवा चुडा माई मनगटाले, मनगटाले
हिंदी अनुवाद
पाँच पानो का विडा, बाई विडा
सने रखा अपना मान ,अपना मान
पैर लगता है बाशिंग लगाकर,बाशिंग
लगाकर
पाँच पानो का विडा, बाई विडा
देने का किया मैंने कुम्हार को, कुम्हार
को
जल्दी लेके आओ नहाने को नहाने
को
पाँच पानो का विडा, बाई विडा
देने का किया मैंने सुतार को, सुतार
को
पेढ़े लाए है नहाने को
नहाने को
पाँच पानो का विडा, बाई विडा
देने का किया मैंने चूड़ीवाले को चूड़ीवाले को
हरा चूड़ा मेरे कलाई में कलाई में
समस्याएँ- इस लोकगीत में हिंदी में अनुवाद करते समय संस्कृतिक समस्याएँ
जैसे- वऱ्हाडी बोली में खाने के पान
बनाते हैं तो उसको इडा और मराठी भाषा में विडा बोलते है लेकिन हिंदी में
इसका कोई पर्यायी वाची शब्द नहीं हैं।
2- वर्हाडी बोली में बाशिंग
का अपना संस्कृतिक अर्थ है जो बस महाराष्ट्र के शादी में दूल्हा दुल्हन माथे पर
लगाते है जो भारत के अन्य शादियों में नहीं लगाते हैं ।
3 – नानुरा यानि नहाना लेकिन यह नहाना सामान्य हर दिन की तरह नहीं
होता हर दिन के नहाने को वऱ्हाडी बोली में अंघोळ बोलते हैं नानुरा
यह शब्द शादी के पहले दिन या शादी के
दूसरे दिन दूल्हा दुल्हन या उसके रिश्ते- दारों को एक साथ बैठकर नहाने को बोलते
हैं। इसलिए इसका अपना संस्कृतिक अर्थ है
जिसका हिंदी अनुवाद समय समस्याएँ आती हैं ।
4- पिड- यह शब्द लकड़ी से
एक बनी वस्तु होती हैं जो शादी के शुभ कार्य के एक दिन दूल्हा, दुल्हन की हल्दी के
समय या नहाने के समय में उस लकड़ी वस्तु के पर बैठकर या खड़े रहकर वो कार्य करना
पड़ता हैं । जो यह एक रस्म हैं । यह रस्म विदर्भ क्षेत्र में अपना खास अस्तित्व
रखती हैं जिसका हिंदी में अनुवाद के समय समस्या आती हैं।
मूल लोकगीत
2- बाई मांडइवाच्या दारी बाई दारी
टाका नुपर गेल्या डेळी, गेल्या डेळी
बाईचे मामाची लावे केळी, लावे केळी
बाई मांडइवाच्या दारी बाई दारी
टाका नुपर गेल्या जांभा, गेल्या जांभा
बाईचे मामा लावे आंबा, लावे आंबा
हिंदी अनुवाद
बाई मंडप के दरवाजे पर , दरवाजे पर
डालो कमी हो गई खांबो की , खांबो की
बाई के मामा लगाएँ केले, लगाएँ केले
बाई मंडप के दरवाजे पर , दरवाजे पर
डालो कमी हो गई जांभ की , गई जांभ
की
बाई के मामा लगाएँ आम , लगाएँ आम
समस्याएँ
1- बाई- बाई यह शब्द विदर्भ में शादी होने के बाद जो
महिलाएँ रहती हैं उनके नाम बाई नाम से आदर
से बुलाया जाता हैं जैसे- वो बाई इधर आओ
बाई का अपना विदर्भ में संस्कृति जो हिंदी अनुवाद में समस्या आती हैं ।
2- डेळी- विदर्भ में जो शादी होती
हैं जो शादी होने के एक दिन पहले पेड़ के डालियों मंडप बनाते जिसके शाखाओं को
विदर्भ में डेळी बोलते हैं ।
3- जांभ- विदर्भ में शादी के
मंडप बनाने के लिए हरे पेड़ की डालियाँ शाखाएँ का उपयोग किया जाता हैं उसको जांभ
बोलते हैं जो एक विशेषपूर्ण शब्द हैं । इस शब्द का अनुवाद हिंदी में नहीं हैं ।
मूल लोकगीत
बाई मांडइवाच्या दारी बाई दारी
चौका रांगूळ कोहळ्याची, कोहळ्याची
वर माय का पोरायची, पोरायची
बाई मांडइवाच्या दारी बाई दारी
वाजा वाजते उपर्याचा, उपर्याचा
पहिला अहेर कपड्याचा कपड्याचा
बाई मांडइवाच्या दारी बाई दारी
नवरदेवाचा वर बाप, वर बाप
लाईन बसत नानुर्यात, नानुर्यात
मोरा टाकल्या गंगाळात, गंगाळात
हिंदी अनुवाद
बाई मंडप के दरवाजे पर , दरवाजे पर
चौका रंगोली कद्दू की कद्दू की
ऊपर माँ क्या बेटे की , बेटे की
बाई मंडप के दरवाजे पर , दरवाजे पर
बाजा बज रहा है सुबह का सुबह का
पहला अहेर कपड़ों का, कपड़ों का
बाई मंडप के दरवाजे पर , दरवाजे पर
दूल्हे के पिता ऊपर, पिता ऊपर
पंक्ति बैठती नहाने को, नहाने को
पानी डाला है बर्तन में ,बर्तन में
अहेर- अहेर यह शब्द विदर्भ में वऱ्हाडी बोली में शादी में जब
दूल्हा –दुल्हन के के माँ-बाप को उनके
रिश्तेदार कपड़ा खरीदकर देते हैं इस वस्तु अहेर बोला जाता हैं जो हिंदी में उसका
अनुवाद नहीं हैं यह वऱ्हाडी बोली का संस्कृतिक शब्द हैं ।
गंगाळ- गंगाळ वह बर्तन हैं जो पीतल, या तांबा धातु से बना हैं जो पहले जमाने के लोग इसी बर्तन में
नहाते थे लेकिन आधुनिक युग में अब बस शादियों में नहाने तक सीमित रह गया हैं ।
उपर्युक्त संदर्भ को
देखते हुए कह सकते हैं कि विदर्भ क्षेत्र
के वऱ्हाडी बोली की संस्कृति और हिंदी क्षेत्र हिंदी भाषा के
संस्कृति में काफी अंतर हैं । संस्कृति की मूल संवेदना एक होते हुए भी
उसके बाह्य रूप अलग- अलग हैं। उदाहरण के
लिए यहाँ पर्व, त्योहार, रीति, रूढ़ियाँ संप्रदाय अलग हैं । इसी तरह हिंदी समाज की संस्कृति में परंपरा, धार्मिक आचरण, आचार विचार,
खाने की चीजें आदि भिन्न हैं। एक भाषा के पर्यायवाची शब्द दूसरी भाषा में नहीं
मिलते हैं । कभी कभी संस्कृति से संबंधित शब्दों का अनुवाद हो ही नहीं सकता ।
संदर्भ सूची
·
अग्रवाल महावीर
‘लोकसंस्कृति आयाम एवं परिप्रेक्ष्य’ श्री प्रकाशन सिविल लाइन, कसारीडीह दुर्ग (म.प्र) (1866)
·
परदेशी डॉ. अर्चना
“भारतीय संस्कृति एवं लोकगीत” वाईटल पब्लिकेशन्स, जयपुर (2011)
·
नाफड़ेडॉ॰ शोभा(2007) ‘वर्हाडीमराठी : उद्गम आणि विकास’ स्वरूप प्रकाशन, औरंगाबाद।
·
डॉ.तिवारी भोलानाथ (2013) ‘भाषा विज्ञान’ किताब महल प्रकाशन इलाहबाद ।
·
गोरे पांडुरंग श्रावण
(१९७८) ‘वर्हाडी लोकगीते’ सेवा प्रकाशन, अमरावती ।
·
परदेशी डॉ. अर्चना (2011) “भारतीय संस्कृति
एवं लोकगीत” वाईटल पब्लिकेशन्स, जयपुर
No comments:
Post a Comment